हमारे आपके आस पास की बाते जो कभी गुदगुदाती तो कभी रूलाती हैं और कभी दिल करता है दे दनादन...

Wednesday, April 21, 2010

लोकतंत्र तथाकथित प्रहरी

लोकतंत्र तथाकथित प्रहरी




पिछले दि नो एक लोकतंत्र तथाकथित प्रहरी के साथ बैठक हो गई , समाज, व्‍यवस्‍था, राजनीति, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्‍सा,व्‍यापार,उद्वोग आदि आदि पर इनकी भावुक टिप्‍पणीयो में मुझे लगातार अराजकता की आहट सुनाई पड रही थी, तमाम बाते ढोल की पोल खोल रही थी दरअसल ये मित्र एक औसत दर्जे के पत्रकार हैं , अर्थाभाव में ज्‍यादा पढ तो नही पाऐ थे पर सुबह का सदुपयोग करते हुऐ अखबार बाटते थे,बिल के साथ विज्ञप्ति भी इकठा करने लगे और जल्‍द ही विज्ञापनो की कमीशन का चस्‍का लग गया,उसे भी बटोरने लगे फिर कमीशन के लिऐ समाचारो का मेनुपुलेशन करके विज्ञापनो को ही शातिराना शब्‍दो से समाचार की शक्‍ल देने लगे, जल्‍द ही अखबार के मालिक के लिऐ धन जुटाने और राजसत्‍ता के विचारधारा को हवा देने के प्रयोग में सफल होकर शहर के ब्‍यूरो प्रमुख हो गऐ तमाम सहूलियते शहर भैयया किस्‍म के लोगो से मिलने लगी, छत के साथ साथ और चार पहियो का भी जुगाड हो गया, मंत्री जी के आर्शिवाद से विदेश यात्रा भी हो गई किसी राजनैतिक व सामाजिक के बजाय मसाज कराने के टूर में , हैसियत ऐसी हैं कि शहर के तमाम बडे प्रतिष्‍ठान ही नही पुलिस विभाग भी समय समय पर इनके लिऐ शराब और कबाब का इंतजाम करने को तत्‍पर रहता हैं, आला अफसर के तबादले ओहदे के लिऐ भी ये मंत्री संत्री की दलाली कर लेते हैं,अखबार के मालिको से मिलने वाली वेतन के रूप में छोटी सी रकम तो यह दफतर के लोगो में ही खिला पिला के खत्‍म कर देते है, तमाम आफिस स्‍टाफ भी इसकी जिंदा‍दिली की वजह से हमेशा इन पर मेहरबान रहते हैं समाचारो के लिऐ आवश्‍यक गोपनियता ऐसी की किसी की शिकायत के लिऐ अगर कोई अखबार को खत लिखे तो इनके के लिऐ उगाही के दो शिकार तैयार, शाम से ही इनके आस पास तमाम शिक्षामाफिया, भूमाफिया, राजनैतिक, प्रशासनिक लोग साथ ही मीडिया परस्‍त अपेक्षाक़त ज्‍यादा योग्‍य आचार्य,प्रचार्य,कलाकार और तथाकथित साहित्‍यकार भी दण्‍डवत करते नजर आते हैं, पुलिस के चपेट में आने वाले लोग भी इनके मोबाइल की मदद लेते रहते हैं और ये महोदय भी अपनी कुटिल मुस्‍कान के साथ सदैव सर्मपित रहते थे , देर रात ये जिनके साथ शराबखोरी में लुडकते दिखे सुबह वही सम्‍माननीय, इनके अखबार के बैनर में मयफोटो नजर आऐगे, इनके लिऐ ग्‍यारह बजे के बाद दिन निकलता हैं और घर की ओर रूख कब होता होगा कुछ कह नही सकते, चेहरे की खमोशी अब क्रूरता मे बदल गई हैं , अखबार मालिक को सरकारी की सहूलियतो के साथ विज्ञापनो के लिऐ इनकी जरूरत हैं , सरकार को अपने तमाम कारनामे पर जनहित की चाशनी के साथ लोगो में अपनी छबि बनाये रखने के लिऐ इनकी आवश्‍यकता हैं और इन महाशय को मीडिया का एक बैनर तो चाहिये जिससे ये अपने आप को प्रजातंत्र के गण देवता होने का मैडल लगाये रहे, और दुर्भाग्‍य ये हैं की हमारी आपकी सुबह की शुरूवात ही इन्‍ही के शातिराना शब्‍दजाल में फंसकर देश प्रदेश, नेता अभिनेता, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्‍सा,व्‍यापार,उद्वोग बाजार, समाज के प्रति अपना मनोविज्ञान बनाने बिगाडने से ही शुरू होती हैं, दरअसल मुझे भी प्रजातंत्र के इस चौथे स्‍तंम्‍भ पर गर्व महसूस होता था और जिस अखबार से मुझे सुबह आंख खोलने की ताकत मिलती थी, मैं ठेले दर ठेले ताक झांक कर जिन समाचारपत्रो से अपने दिमाग को झकझोरता रहता था वैसा कुछ रहा नही अब तो आऐ दिन बैग लटकाऐ ऐसे अखबारो के मार्केटिग एक्‍जक्‍युटीव मेरी श्रीमति को चाय पत्‍ती, कुर्सी, टावल, बैग ,ग्‍लास और जाने क्‍या क्‍या प्रलोभन दे कर अखबार का ग्राहक बना देते हैं, और जाने कब गेट पर फेंक कर चले जाते हैं,अब इसके लिऐ भौर सुबह कोई उत्‍साहजनक इन्‍तजार भी नही रहता, सच बताउ मुझे अब इनकी अखबार भी नुक्‍कड स्थित शाही दवाखाने से मर्दानगी के नाम पर बटने वाली पम्‍पलेट के सामान लगती हैं,और औसतन अखबारो के दफतर में ऐसे ही पत्रकार चला रहे हैं, इनसे कही बेहतर सम्‍मान वैभव और सभ्‍यता के साथ उसी दफतर में मार्केटिग और सर्कुलेशन विभाग के लोग नजर आते हैं, निश्‍चय ही हम आप नैतिकता की राह पर महत्‍वकांक्षा की अंधी दोड दोडने सक्षम नही रहे , ठीक उसी तरह जैसे डाक्‍टर मरीज को मरने नही देता तो ठीक भी नही होने देता, वकील अपने क्‍लांइण्‍ट को केस हारने नही देता तो जीतने भी नही देता, प्रेस वार्ता,इनके लिऐ लंच डीनर का जुगाड है,

मीडिया परस्‍ती के इस दौर में अखबार जगत का व्‍यवसायिककरण होना कोई आश्‍चर्य नही है, पर यह सवाल भी स्‍वाभाविक हैं कि पाठक को को मिल क्‍या रहा है और उसकी अपेक्षा क्‍या हैं समाचार को विचार के रूप में परोसना कंहा तक उचित हैं समाज, व्‍यवस्‍था, राजनीति, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्‍सा,व्‍यापार,उद्वोग आज हर कोई मीडिया का दुरूपयोग करने को अमादा हैं और स्‍वयं अखबार को यह आत्‍मविश्‍वास नही रहा की पाठकवर्ग को वह ऐसी सामग्री दे सकता हैं कि पाठको से उसे न्‍यूनतम लाभ मिल सके,अखबारो मे पाठको की भागीदारी लगातार गिर रही है,और अखबार सरकारी विज्ञापनो के मोहजाल में फंस कर आम जनता के स्‍वास्‍थ, शिक्षा, रोजगार और समाज को क्‍या मिल रहा है और उसका हक क्‍या है , ऐसे बुनियादी सवालो से भाग रहा हैं, थानो से अपराध के बारे में पुछ कर,नेताओ के आरोप प्रत्‍यारोप, राजनीति,प्रशासनि‍क पट्रटीया छाप नेताओ की विज्ञप्ति छापकर कुछ इन्‍टरनेट से मार कर सैकडो अखबार निकल रहे हैं, कुछेक तो सामान्‍य लेडल प्रिंटिग की दुकान से दस बीस प्रति निकाल कर सरकारी सेटिंग व गैरसरकारी ब्‍लैकमेलिंग से विज्ञापन बटोर रहे हैं , पर जैसा की हमारे देश में (संभवत: पहली बार) लहलहा चले ज्यादातर क्षेत्रीय अखबारों को यह गलतफहमी हो गई है, कि लोकतंत्र के यही एक गोवर्धन जो है, इन्हीं की कानी उंगली पर टिका हुआ है। इसलिए वे कानून से भी ऊपर हैं। ऊपरी तौर से इस भ्रांति की कुछ वजहें हैं। क्योंकि हर जगह से हताश और निराश अनेक नागरिक आज स्‍वयम इस ढंग से मीडिया की शरण में उमड़े चले जा रहे हैं। और यह भी सही है, कि हमार यहाँ अनेक बड़े घोटालों तथा अपराधों का पर्दाफास भी मीडिया ने ही किया है। लेकिन ईमान से देखें तो अपनी व्यापक प्रसार संख्या के बावजूद भाषायी पत्रकारिता का अपना योगदान इन दोनों ही क्षेत्रों में बेहद नगण्य है। दूसरी तरफ ऐसे तमाम उदाहरण आपको वहाँ मिल जाएंगे, जहाँ हिंदी पत्रकारों ने छोटे-बड़े शहरों में मीडिया में खबर देने या छिपाने के नाम पर एक माफियानुमा दबदबा बना लिया है।

प्रोफेशनल मापदण्‍डो के तहत क्‍या इनके लिऐ कोई ड्रिग्री डिप्‍लोमा अनिवार्य नही होना चाहिये , क्‍या यहां चल रही सामंतवादी प्रव़तियो पर आरक्षण आवश्‍यक नही हैं, दुराचरण साबित होने पर एक डॉक्टर या चार्टर्ड अकाउण्टेंट नप सकता है, तो एक गैरजिम्मेदार पत्रकार क्यों नहीं ? मैं व्‍यक्तिगत तौर पर शुरू से ही इस पेशे से काफी प्रभावित रहा , पर यही सही वक्‍त हैं जब इसकी छवि बिगाड़ने वाली इस तरह की घटिया पत्रकारिता के खिलाफ ईमानदार और पेशे का आदर करने वाले पत्रकारों का भी आंदोलित होना आवश्यक बन गया है, क्योंकि इसके मूल में किसी पेशे की प्रताड़ना नहीं, पत्रकारिता को एक नाजुक वक्त में सही धंधई पटरी पर लाने की स्वस्थ इच्छा है। यहां यह भी उल्‍लेख्‍नीय हैं कि क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस दुराचरण से कोई भी पत्रकार पनप नही सका क्‍योकी तमाम प्रश्रय देने वाले अपेक्षाक्रत ज्‍यादा ही अवसरवादी होते हैं जो शक्ति को येन तेन प्रकारेण निचोडने के बाद अन्‍तंत जूठी पत्‍तल की तरह फैंक देते हैं,

1 comment:

RAJ SINH said...

सुस्वागतम !

बहुत ही कड़वी सच्चाई है यह .पर कुछ तो करना ही होगा .हर धर्म की तरह पत्रकारिता ' धर्म ' भी धंधा बन गया है .सवाल यह है की किया क्या जाये ?