जीवन की राह में एक छोटा पड़ाव साहित्य का भी आया, टिक पाना तो मुश्किल ही था, न लिखना आता हैं ना शब्दों की चतुराई मालूम हैं, बस पढ़ने सुनने का शौक हैं जिससे दाल गलनी संभव ही न थी, खैर भिलाई के आर मुथुस्वामी जी के जीवन को साहित्य से जोड़ कर देखने पर जो संक्षिप्त साहित्यिक समझ बनी वह काफी दिलचस्प हैं,
सतीश कुमार चौहान , भिलाई
Sunday, September 5, 2021
साहित्यकार....
Saturday, September 4, 2021
कैंची ,डंडा फिर गद्दी की सवारी...
जी हां बात सायकल की हो रही हैं , आज की पीढ़ी सायकल तो चला रही पर छोटी जिससे पैर ज़मीन पर टिका रहें, पहले ही दिन सीधे गद्दी पर बैठ कर ! संतुलन के लिऐ पीछे तीन चक्के लगे हैं कंधे पर पापा मम्मी दादा दादी नाना नानी भाई बहन या रिश्तेदारो का हाथ रहता हैं हमारे दौर साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी चलाना मुनासिब नहीं होता था।आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना "जहाज" उड़ाने जैसा होता था, घर से बड़ी हिम्मत जुटा के साइकिल ढुगराते हुए निकलते और उधर से कैंची चलाते हुए घर वापस आते, "कैंची" वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे, एक हाथ से हैंडल को दूसरा हाथ साइकिल के हैंडल और सीट के बीच के डंडे को लपेट कर जकड़ लेते थे, ना जाने कितने दफे अपने घुटने और मुंह तोड़वाए पर दर्द हर बार उत्साह में महसूस ही नहीं होता था, गिरने पर भी चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा पोंछते हुए फिर निकल पड़ते थे, कुछ संतुलन बना तब तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और *"ट्रिन ट्रिन " करके बेवजह घंटी बजाते थे ताकी लोग समझ सकें हम सीख गए, सवार हो गए, डंडे के ऊपर इर्द गिर्द पैर दल कर पैडल पर कूदना एक पैर से दबाना दूसरे से उठाना पैरों को लपकाना ये डंडा कला थी, इसमें पैर और जमीन की दूरी ज्यादा होती थी गिरने की संभावना भी... पर यहीं से जिम्मेदारियों की पहली कड़ी शुरू होती थी गेहूं पिसाने लायक के लिऐ साइकल ले जाने की विधिवत इजाजत मिलती थी, चैन उतरना, चक्का डग होना ,हेंडिल या पैडल का फ्री होना, पैडल का चैन कवर से टकराना ये सब समस्याएं आम थी ..
आज की पीढ़ी इस "एडवेंचर" से महरूम है उन्हे नही पता की जीवन की पहली सीख क्या होती हैं चोट का दर्द कैसे सहना और गिर के कैसे संभलना हैं यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी। मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर कैसे संतुलन बनाते थे, खद असफल होकर गिरना फिर पैर पटकते हुऐ रोना अपने से बड़ों को मारना उस पीढ़ी में नहीं था, निसंदेह सायकल चलाना संघर्ष का पहला पाठ था........
Saturday, May 16, 2020
करोना के नाम पर सरकारी राहत ...
बिजनेस अखबारों ने भी 20 लाख करोड़ के पैकेज का पोस्टमार्टम करना शुरू कर दिया
है.........वो बता रहे हैं कि कल वित्तमंत्री द्वारा घोषित किये गए पैकेज की
ज्यादातर घोषणाएं क्रेडिट गारंटी से जुड़ी हैं। इसमें से कोई अतिरिक्त बोझ सरकार
पर तभी पड़ेगा, जब किसी तरह का डिफॉल्ट हो जाए,घोषित पैकेज के गुब्बारे की हवा आज सुबह शेयर बाजार ने
निकाल दी गुरुवार को भारतीय शेयर बाजार में सेंसेक्स शुरुआत 600 अंकों की बड़ी गिरावट के साथ हुई है, साफ दिख रहा है कि जो मार्केट को उम्मीद थी कि सीधे तौर पर
फायदा पहुंचाया जाएगा. वह पूरी नही हुई , इंडस्ट्री को लग रहा था कि सीधे तौर पर बड़ा आर्थिक पैकेज
दिया जाएगा. लेकिन अब साफ दिख रहा है कि भारत के कारोबार जगत को सीधे तौर पर राहत
नहीं मिलने वाली है.MSME सेक्टर के लिए जारी किए गए एकमुश्त 3 लाख करोड़ रुपये के पैकेज समेत इस पूरी रकम के लिए सरकार
के खजाने पर सिर्फ 56,500 करोड़ रुपये का ही बोझ पड़ेगा। ओर जो 56,500 करोड़ रुपये खर्च होने हैं, उसमें 50,000 करोड़ रुपये का हिस्सा टीडीएस और टीसीएस की दरों में 25 फीसदी की कटौती का है। इसके अलावा 4,000 करोड़ रुपये कर्ज में फंसी MSME की मदद के लिए आवंटित किए गए हैं और 2,500 करोड़ रुपये से सरकार ने छोटी कंपनियों
के कर्मचारियों के पीएफ को जमा करने का फैसला लिया है
सरकार की ओर से अब
तक करीब 13 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान किया
जा चुका है, उसमें से सिर्फ 1.26 लाख करोड़ रुपये सरकारी खजाने से जाने
हैं। बिजनेस टुडे के विश्लेषण के मुताबिक अभी के 56,000 करोड़ और मार्च में जारी हुए 1.7 लाख करोड़ रुपये में सरकार की ओर से खर्च
हुए 70,000 करोड़ को जोड़ दें तो यह रकम 1.26 लाख करोड़ रुपये हो जाती है। यानी कुल 13 लाख करोड़ का पैकेज में सरकार का वास्तविक
हिस्सा मात्र सवा लाख
करोड़ ,
'आत्मनिर्भर भारत अभियान की
बात को मीडिया ऐसे
पेश करेगा जैसे मोदी जी ने कोई अनोखी निराली बात कह दी
हो, 2019 की आखिरी 'मन की बात' में ओर बनारस में दिए गए भाषण में ये 'लोकल खरीदो' 'लोकल को प्रमोट करो' वाली बातें ये पहले भी कर चुके हैं........दरअसल 'आत्मनिर्भर
भारत अभियान' भी 'मेक इन इंडिया' स्टैंडअप इंडिया, स्टार्टअप इंडिया ओर स्किल डेवलपमेंट के लिए बनाए गए 'स्किल इंडिया' का ही मिला जुला रूप है जिसे ये अपने पहले कार्यकाल के पहले
साल में बड़ी जोरशोर से लेकर आए थे लेकिन कालांतर में वह कहा गायब हो गए पता ही नही चला, अब मोदी जी न तो स्टैंडअप इंडिया-स्टार्टअप
इंडिया, का नाम लेते हैं न, स्किल इंडिया का न मेक इन इंडिया का ,मेक इन इंडिया की
घोषणा 15 अगस्त 2015 को हुई, 'मेक-इन इंडिया' को शुरू हुए 6 साल बीत चुके हैं लेकिन देशी विदेशी
विनिर्माता कंपनियों ने भारत में कारखाने लगाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई
है। चीन से पलायन कर रही कंपनियां आज भी भारत में कोई दिलचस्पी नही दिखा रही है
जबकि इस दौरान अमेरिका चीन के बीच ट्रेड वार तक शुरू हो गयी है, भारत के पास सबसे बेहतरीन मौका था लेकिन
हमने उसे गंवा दिया, मूलतः मेक इन इंडिया अभियान
मैन्युफैक्चरिंग की गति को बढाने का अभियान था जिससे रोजगार जैसे लक्ष्य आसानी से
प्राप्त होते मेक इन इंडिया में मूल लक्ष्य निम्न थे......Wednesday, May 13, 2020
गरीब
करोना का बाजार
यह कटु सच हैं कि गली में लम्बे समय से fair & lovely को fresh & lovely , Lifeboy को Lifebody और Dora को Dara कह कर गरीब लोगों को अमीरी
के शौक बेच कर गली का लाल हो रहा लाला भी गरीब के चुल्हे की आंच जलाऐ रखता हैं,
पर आज इलाज के नाम पर सम्मानीय पेशे में मुनाफखोरी का दीमक लग गया हैं, इलाज के
नाम पर खतरनाक रसायनिक दवाई के की बाढ आ गई हैं, स्वयं चिकित्सक इलाज के नाम पर
मरीज की नब्ज के बजाय जेब टटोल रहा हैं, संवेदना की खाट पर लिटाने के बजाय इलेक्टानिक
उपकरणो की तार में लपेट देना ज्यादा लाभकर समझता हैं, सोचिऐ क्या हर किसी को डाक्टर
मैं हूं कि आप सा टका सा जबाब देने वाली चिकित्सक की जानकारी के बिना आक्सीजन
के सिलेण्डर मरीज को लगाया जा सकता हैं, गुणवत्ताविहिन वेटिंलेटर अस्पताल में आ
सकता हैं , स्तरहीन टेस्ट कीट का प्रयोग किसी प्रयोगशाला में हो सकता हैं कतई
नही राजनैतिक निर्णय हो सकते हैं पर दबाब नहीं चिकित्साजगत की अपनी एक कसौटी हैं
जिस पर स्वय चिकित्सक को ही अपने पेशे का रगडना हैं और गुणवत्ता निर्धारित करनी हैं कटु सच ही तो हैं कि अगर डायबीटिज् की बीमारी के लिऐ दवा पर गर कोई सफल
अनुसंधान कर ले तो चिकित्सा का नोबेल पुरष्कार भी उसके सम्मान में कम होगा,
डायबीटिज् का विश्वव्यापी कितना बडा बाजार हैं, और इसके शर्तिया इलाज की कितने
सालों से कितनी बडी किमत चुका जा रही हैं कल्पना से परे हैं......
आपने गिनी पिग्स का नाम तो
सुना होगा। यह चूहों की परिवार की प्रजाति होती है इन्हें प्रयोगशालाओं में दवाओं, घातक रसायनों के प्रयोग के
लिए इस्तेमाल किया जाता है।
इस समय कोरोना से संक्रमित
मरीज ही नहीं हम सब की हालत गिनी पिग्स जैसी हो चुकी है।
हर कंपनी चाहती है कि इस
अवसर का फायदा उठाने में नित नये आश्वासन बेच कर धन बटोरने में लगा हैं ,सवाल जीवन से जुड़ा हैं
इसलिऐ गाहे-बगाहे सबकी दुकान चल रही हैं , तमाम खाद्य और औषधीय मापदंडों को तिलांजलि दे दी गई हैं,
ताजा उदाहरण करोना के लेकर...
प्रधानमंत्री मोदी का करीबी
समझा जाने वाला एक जइी बूटी व्यापारी और पतंजलि कंपनी का मालिक रामदेव भी अवसर का
लाभ उठा रहा है। इंदौर के कलेक्टर मनीष सिंह ने कल रामदेव की एक आयुर्वेदिक दवा को
कोरोना मरीजों पर परीक्षण करने की अनुमति दी है।
कलेक्टर महोदय बयान दे रहें
हैं पतंजलि रिसर्च फाऊंडेशन के
प्रस्ताव को अनुमति देते हुए एक एमबीबीएस डॉक्टर और एक आयुर्वेदिक डॉक्टर की
निगरानी में परीक्षण की अनुमति दी गई है। वो भी सिर्फ और सिर्फ 48 घंटे में ,
कलेक्टर कौन होता है अनुमति
देने वाला ?
भारत का क्लीनिकल ट्रायल नियम
कहता है कि इसकी अनुमति स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया देगा।
ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया की
एथिक्स कमेटी पूरे परीक्षण की निगरानी रखेगी और गिनी पिग बने मरीज की मौत या
शारीरिक नुकसान होने पर उसे मुआवजा दिया जाएगा।
यह कैसा खिलवाड़ हैं ? अगर रामदेव की दवा खाकर मरीज की मौत हो जाती है तो प्रशासन
उसे कोरोना से मौत मानकर मुर्दे को सीधे जला देगा,
निश्चित तौर पर हमारे निर्धारित मापदंड बंदर के हाथ उस्तरे
वाले ही हैं,

