हमारे आपके आस पास की बाते जो कभी गुदगुदाती तो कभी रूलाती हैं और कभी दिल करता है दे दनादन...

Sunday, September 5, 2021

साहित्यकार....

 जीवन की राह में एक छोटा पड़ाव साहित्य का भी आया, टिक पाना तो मुश्किल ही था, न लिखना आता हैं ना शब्दों की चतुराई मालूम हैं, बस पढ़ने सुनने का शौक हैं जिससे दाल गलनी संभव ही न थी, खैर भिलाई के आर मुथुस्वामी जी के जीवन को साहित्य से जोड़ कर देखने पर जो संक्षिप्त साहित्यिक समझ बनी वह काफी दिलचस्प हैं,

उम्र के छटवे दशक में मूलत दक्षिण भारतीय इस शख्स ने भिलाई और उसके आसपास के क्षेत्र में अपने आप को दक्षिण भारतीय हिंदी कवि आर मुथुस्वामी जी के रूप में बड़े सशक्त ढंग से स्थापित कर लिया था अंग्रेजी ट्यूशन की औसत आय पर आश्रित तिलक सुशोभित स्वामी जी का हिंदी काव्य के प्रति जुनून मेरे लिऐ आश्चर्य ही था वे कविता पढ़ने के लिऐ अपनी लूना की सवारी पर समूचे जिले के छोटे बड़े आयोजन में हर हाल में पहुंच जाते थे, अगर स्वागत फूल माला स्तर का हुआ तब तो स्वामी जी माला पहने ही पूरा शहर घूमते हुऐ हर अखबार में विज्ञप्ति भी दल आते थे माला पहने ही बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा देते थे , स्वामी जी काफी सरल थे अमूमन हर आयोजन में उनके ही मित्र उनका मजाक उड़ाते थे पर वें इन सब से बेपरवाह तर्रन्नुम में सरस्वती वंदना से शुरू होकर अपनी रचना सुनाने तक डटे ही रहते थे, उनके साथ हर वक्त दवाई का एक डब्बा होता था जिसमे इंसुलिन का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां होती थी जिसे वह कहीं भी इस्तमाल कर लेते थे, साहित्य बिरादरी में उनके प्रति अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही ईर्ष्या थी दरअसल उन्हें काम करते मजदूर , सडक पर खड़े सिपाही दफ्तर में बैठे अफसर , कलेक्टर अधिकारी मंच पर मंत्री संतरी को ऑन स्पॉट खड़े खड़े पूरे तर्रन्नुम के साथ जांघ पर ताल ठोक ठोक कर कविता सुनाते लग जाते थे, जीवटता ऐसी की एक बार अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के आयोजकों से ये दावा कर दिया था कि अखिल भारतीय में अन्य राज्यों की तरह दक्षिण भारतीय राज्य का भी प्रतिनिधि होना चहिए और मंच पर जगह ले ली थी, स्वामी अंत तक स्थापित कवि बनने के लिऐ जूझते रहें गिरते पड़ते चोट लगी हालत में पैसे न होने पर ड्राइवर कंडक्टर को कविता सुनाते कवि सम्मेलनों में पहुंचना आयोजकों से पहले ही कविता पाठ कि विज्ञप्ति छपवा देना इनकी खासियत थी कुछ अखबारों के कर्मचारियों को तो बदस्तूर हर प्रकाशित विज्ञप्ति पर अर्थलाभ भी पुरी ईमानदारी से चुकाते थे, तमाम अभाव के बावजूद स्थापित कवि की मान्यता के आश्वासनों पर शहर की हर संस्था की मयशुल्क सदस्य भी बनते थे ,तीन चार संकलन भी छपवा लिऐ थे, स्वामी जी को पद्म पुरस्कार के दावेदार बताकर भी भ्रमित किया गया जिसके लिऐ भी स्वामी जी ने अपने सीमित संसाधनों के साथ भी समुचित मेहनत भी शुरू की येन तेन अनुशंसा पत्र, प्रमाणपत्र, विज्ञप्ति की कटिंग फोटोग्राफ के एल्बम भी बनाना शुरू कर दिया था , जूनून के पक्के स्वामी जी ने कला संस्कृति साहित्य से जुड़े बुजुर्ग अभावग्रस्त साथियों के लिए भी मंत्री संतरी के दरबार में गुहार लगाई एक बार भिलाई इस्पात संयंत्र के सी ई ओ के घर भी संयंत्र के अस्पताल में इलाज की गुहार लगाने पहुंच गए साहेब जा चुके थे तो मैडम को ही दरखास्त करते हुऐ कविताएं सुना डाली , मुझे भी रात को उड़ती खबर मिली की आई सी यू में भर्ती एक गंभीर मरीज चिकित्सा कर्मियो का कविताएं सुना कर काफ़ी मनोरंजन कर रहा हैं , जबकी उसकी हालत बेहद खराब हैं मैं समझ गया कौन और किस हाल में है मैं सुबह ही अस्पताल की आईसीयू में पहुंच गया , हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी बेड नंबर दो पर बेसुध लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर था डॉक्टरों के अनुसार रिवर्स आना मुश्किल था procalcitonine और प्रो बी एन पी टेस्ट की जरूरत थी जो शहर की किसी लैब में मुमकिन नहीं थी मैंने ब्लड सैंपल मुंबई की एस आर एल लैब में भेजने की व्यवस्था की पर जल्द ही कविता थम कर स्मरण में तब्दील हो गई , अंतिम यात्रा भी परिवार पड़ोस के अलावा कुछेक साहित्यिक किस्म के मित्र ही नजर आए, अफसोस , गोष्ठियों की सुर्खियो में बुद्धिजीवी ,साहित्यकार ,समाज का दर्पण बनने वाली मीडियापरस्त बिरादरी ऐसे जूनून को एक कतरन का भी साथ ना दे सकी ......
कई बार शब्द चयन और विषयवस्तु की गंभीरता को समझने के लिऐ मेरे पास आते थे व्यस्त देख बड़ी शालीनता से इंतजार करते थे इस दौरान कई बार उन्होंने अपने ही साहित्यिक बिरादरी के उपेक्षित रवैए, छिटाकशी पर दुख व्यक्त किया पर अगले ही पल वह स्वयं उसे चुनौती समझ स्वीकार कर सुधार के प्रयास में लग जाते थे , मैंने साहित्य में अपना अधिकार के भ्रम में एक बार हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी जी को उनके हिंदी के प्रयास और जुनून का सम्मान करते हुऐ एक स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र देने का निर्णय लिया तो शहर के कुछ पटिया छाप तथा कथित रचनाकर साहित्यकर , कवि बने आत्ममुग्ध लोगों द्वारा मेरा ही विरोध कर दिया था जबकि मैं आज भी समाज के किसी वर्ग से स्वामी जी को किसी योग्यता का सर्टिफिकेट देने की अनुशंसा या अपेक्षा नहीं करता ना ही उनके लिऐ किसी तरह की गुहार लगा रहा हूं पर बुद्धिजीवी वर्ग से किसी मनोविज्ञान जुनून को नकारने की इस प्रवृत्ति कतई सही नही मानता, शहर के साहित्य से मैं निराश हूं .....
उम्र के छटवे दशक में मूलत दक्षिण भारतीय इस शख्स ने भिलाई और उसके आसपास के क्षेत्र में अपने आप को दक्षिण भारतीय हिंदी कवि आर मुथुस्वामी जी के रूप में बड़े सशक्त ढंग से स्थापित कर लिया था अंग्रेजी ट्यूशन की औसत आय पर आश्रित तिलक सुशोभित स्वामी जी का हिंदी काव्य के प्रति जुनून मेरे लिऐ आश्चर्य ही था वे कविता पढ़ने के लिऐ अपनी लूना की सवारी पर समूचे जिले के छोटे बड़े आयोजन में हर हाल में पहुंच जाते थे, अगर स्वागत फूल माला स्तर का हुआ तब तो स्वामी जी माला पहने ही पूरा शहर घूमते हुऐ हर अखबार में विज्ञप्ति भी दल आते थे माला पहने ही बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा देते थे , स्वामी जी काफी सरल थे अमूमन हर आयोजन में उनके ही मित्र उनका मजाक उड़ाते थे पर वें इन सब से बेपरवाह तर्रन्नुम में सरस्वती वंदना से शुरू होकर अपनी रचना सुनाने तक डटे ही रहते थे, उनके साथ हर वक्त दवाई का एक डब्बा होता था जिसमे इंसुलिन का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां होती थी जिसे वह कहीं भी इस्तमाल कर लेते थे, साहित्य बिरादरी में उनके प्रति अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही ईर्ष्या थी दरअसल उन्हें काम करते मजदूर , सडक पर खड़े सिपाही दफ्तर में बैठे अफसर , कलेक्टर अधिकारी मंच पर मंत्री संतरी को ऑन स्पॉट खड़े खड़े पूरे तर्रन्नुम के साथ जांघ पर ताल ठोक ठोक कर कविता सुनाते लग जाते थे, जीवटता ऐसी की एक बार अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के आयोजकों से ये दावा कर दिया था कि अखिल भारतीय में अन्य राज्यों की तरह दक्षिण भारतीय राज्य का भी प्रतिनिधि होना चहिए और मंच पर जगह ले ली थी, स्वामी अंत तक स्थापित कवि बनने के लिऐ जूझते रहें गिरते पड़ते चोट लगी हालत में पैसे न होने पर ड्राइवर कंडक्टर को कविता सुनाते कवि सम्मेलनों में पहुंचना आयोजकों से पहले ही कविता पाठ कि विज्ञप्ति छपवा देना इनकी खासियत थी कुछ अखबारों के कर्मचारियों को तो बदस्तूर हर प्रकाशित विज्ञप्ति पर अर्थलाभ भी पुरी ईमानदारी से चुकाते थे, तमाम अभाव के बावजूद स्थापित कवि की मान्यता के आश्वासनों पर शहर की हर संस्था की मयशुल्क सदस्य भी बनते थे ,तीन चार संकलन भी छपवा लिऐ थे, स्वामी जी को पद्म पुरस्कार के दावेदार बताकर भी भ्रमित किया गया जिसके लिऐ भी स्वामी जी ने अपने सीमित संसाधनों के साथ भी समुचित मेहनत भी शुरू की येन तेन अनुशंसा पत्र, प्रमाणपत्र, विज्ञप्ति की कटिंग फोटोग्राफ के एल्बम भी बनाना शुरू कर दिया था , जूनून के पक्के स्वामी जी ने कला संस्कृति साहित्य से जुड़े बुजुर्ग अभावग्रस्त साथियों के लिए भी मंत्री संतरी के दरबार में गुहार लगाई एक बार भिलाई इस्पात संयंत्र के सी ई ओ के घर भी संयंत्र के अस्पताल में इलाज की गुहार लगाने पहुंच गए साहेब जा चुके थे तो मैडम को ही दरखास्त करते हुऐ कविताएं सुना डाली , मुझे भी रात को उड़ती खबर मिली की आई सी यू में भर्ती एक गंभीर मरीज चिकित्सा कर्मियो का कविताएं सुना कर काफ़ी मनोरंजन कर रहा हैं , जबकी उसकी हालत बेहद खराब हैं मैं समझ गया कौन और किस हाल में है मैं सुबह ही अस्पताल की आईसीयू में पहुंच गया , हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी बेड नंबर दो पर बेसुध लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर था डॉक्टरों के अनुसार रिवर्स आना मुश्किल था procalcitonine और प्रो बी एन पी टेस्ट की जरूरत थी जो शहर की किसी लैब में मुमकिन नहीं थी मैंने ब्लड सैंपल मुंबई की एस आर एल लैब में भेजने की व्यवस्था की पर जल्द ही कविता थम कर स्मरण में तब्दील हो गई , अंतिम यात्रा भी परिवार पड़ोस के अलावा कुछेक साहित्यिक किस्म के मित्र ही नजर आए, अफसोस , गोष्ठियों की सुर्खियो में बुद्धिजीवी ,साहित्यकार ,समाज का दर्पण बनने वाली मीडियापरस्त बिरादरी ऐसे जूनून को एक कतरन का भी साथ ना दे सकी ......
कई बार शब्द चयन और विषयवस्तु की गंभीरता को समझने के लिऐ मेरे पास आते थे व्यस्त देख बड़ी शालीनता से इंतजार करते थे इस दौरान कई बार उन्होंने अपने ही साहित्यिक बिरादरी के उपेक्षित रवैए, छिटाकशी पर दुख व्यक्त किया पर अगले ही पल वह स्वयं उसे चुनौती समझ स्वीकार कर सुधार के प्रयास में लग जाते थे , मैंने साहित्य में अपना अधिकार के भ्रम में एक बार हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी जी को उनके हिंदी के प्रयास और जुनून का सम्मान करते हुऐ एक स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र देने का निर्णय लिया तो शहर के कुछ पटिया छाप तथा कथित रचनाकर साहित्यकर , कवि बने आत्ममुग्ध लोगों द्वारा मेरा ही विरोध कर दिया था जबकि मैं आज भी समाज के किसी वर्ग से स्वामी जी को किसी योग्यता का सर्टिफिकेट देने की अनुशंसा या अपेक्षा नहीं करता ना ही उनके लिऐ किसी तरह की गुहार लगा रहा हूं पर बुद्धिजीवी वर्ग से किसी मनोविज्ञान जुनून को नकारने की इस प्रवृत्ति कतई सही नही मानता, शहर के साहित्य से मैं निराश हूं .....

Saturday, September 4, 2021

 कैंची ,डंडा फिर गद्दी की सवारी...

जी हां बात सायकल की हो रही हैं , आज की पीढ़ी सायकल तो चला रही पर छोटी जिससे पैर ज़मीन पर टिका रहें, पहले ही दिन सीधे गद्दी पर बैठ कर ! संतुलन के लिऐ पीछे तीन चक्के लगे हैं कंधे पर पापा मम्मी दादा दादी नाना नानी भाई बहन  या रिश्तेदारो का हाथ रहता हैं हमारे दौर साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी चलाना मुनासिब नहीं होता था।आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना "जहाज" उड़ाने जैसा होता था, घर से बड़ी हिम्मत जुटा के साइकिल ढुगराते हुए निकलते और उधर से कैंची चलाते हुए घर वापस आते, "कैंची" वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे, एक हाथ से हैंडल को दूसरा हाथ साइकिल के हैंडल और सीट के बीच के डंडे को लपेट कर जकड़ लेते थे, ना जाने कितने दफे अपने घुटने और मुंह तोड़वाए पर दर्द हर बार उत्साह में महसूस ही नहीं होता था, गिरने पर भी चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा पोंछते हुए फिर निकल पड़ते थे, कुछ संतुलन बना तब तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और *"ट्रिन ट्रिन " करके बेवजह घंटी बजाते थे ताकी लोग समझ सकें हम सीख गए, सवार हो गए, डंडे के ऊपर इर्द गिर्द पैर दल कर पैडल पर कूदना एक पैर से दबाना दूसरे से उठाना पैरों को लपकाना ये डंडा कला थी, इसमें पैर और जमीन की दूरी ज्यादा होती थी गिरने की संभावना भी... पर यहीं से जिम्मेदारियों की पहली कड़ी शुरू होती थी गेहूं पिसाने लायक के लिऐ साइकल ले जाने की विधिवत इजाजत मिलती थी, चैन उतरना, चक्का डग होना ,हेंडिल या पैडल का फ्री होना, पैडल का चैन कवर से टकराना ये सब समस्याएं आम थी ..

आज की पीढ़ी इस "एडवेंचर" से महरूम है उन्हे नही पता की जीवन की पहली सीख क्या होती हैं चोट का दर्द कैसे सहना और गिर के कैसे संभलना हैं यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी। मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर कैसे संतुलन बनाते थे, खद असफल होकर गिरना फिर पैर पटकते हुऐ रोना अपने से बड़ों को मारना उस पीढ़ी में नहीं था, निसंदेह सायकल चलाना संघर्ष का पहला पाठ था........