हमारे आपके आस पास की बाते जो कभी गुदगुदाती तो कभी रूलाती हैं और कभी दिल करता है दे दनादन...

Sunday, September 5, 2021

साहित्यकार....

 जीवन की राह में एक छोटा पड़ाव साहित्य का भी आया, टिक पाना तो मुश्किल ही था, न लिखना आता हैं ना शब्दों की चतुराई मालूम हैं, बस पढ़ने सुनने का शौक हैं जिससे दाल गलनी संभव ही न थी, खैर भिलाई के आर मुथुस्वामी जी के जीवन को साहित्य से जोड़ कर देखने पर जो संक्षिप्त साहित्यिक समझ बनी वह काफी दिलचस्प हैं,

उम्र के छटवे दशक में मूलत दक्षिण भारतीय इस शख्स ने भिलाई और उसके आसपास के क्षेत्र में अपने आप को दक्षिण भारतीय हिंदी कवि आर मुथुस्वामी जी के रूप में बड़े सशक्त ढंग से स्थापित कर लिया था अंग्रेजी ट्यूशन की औसत आय पर आश्रित तिलक सुशोभित स्वामी जी का हिंदी काव्य के प्रति जुनून मेरे लिऐ आश्चर्य ही था वे कविता पढ़ने के लिऐ अपनी लूना की सवारी पर समूचे जिले के छोटे बड़े आयोजन में हर हाल में पहुंच जाते थे, अगर स्वागत फूल माला स्तर का हुआ तब तो स्वामी जी माला पहने ही पूरा शहर घूमते हुऐ हर अखबार में विज्ञप्ति भी दल आते थे माला पहने ही बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा देते थे , स्वामी जी काफी सरल थे अमूमन हर आयोजन में उनके ही मित्र उनका मजाक उड़ाते थे पर वें इन सब से बेपरवाह तर्रन्नुम में सरस्वती वंदना से शुरू होकर अपनी रचना सुनाने तक डटे ही रहते थे, उनके साथ हर वक्त दवाई का एक डब्बा होता था जिसमे इंसुलिन का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां होती थी जिसे वह कहीं भी इस्तमाल कर लेते थे, साहित्य बिरादरी में उनके प्रति अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही ईर्ष्या थी दरअसल उन्हें काम करते मजदूर , सडक पर खड़े सिपाही दफ्तर में बैठे अफसर , कलेक्टर अधिकारी मंच पर मंत्री संतरी को ऑन स्पॉट खड़े खड़े पूरे तर्रन्नुम के साथ जांघ पर ताल ठोक ठोक कर कविता सुनाते लग जाते थे, जीवटता ऐसी की एक बार अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के आयोजकों से ये दावा कर दिया था कि अखिल भारतीय में अन्य राज्यों की तरह दक्षिण भारतीय राज्य का भी प्रतिनिधि होना चहिए और मंच पर जगह ले ली थी, स्वामी अंत तक स्थापित कवि बनने के लिऐ जूझते रहें गिरते पड़ते चोट लगी हालत में पैसे न होने पर ड्राइवर कंडक्टर को कविता सुनाते कवि सम्मेलनों में पहुंचना आयोजकों से पहले ही कविता पाठ कि विज्ञप्ति छपवा देना इनकी खासियत थी कुछ अखबारों के कर्मचारियों को तो बदस्तूर हर प्रकाशित विज्ञप्ति पर अर्थलाभ भी पुरी ईमानदारी से चुकाते थे, तमाम अभाव के बावजूद स्थापित कवि की मान्यता के आश्वासनों पर शहर की हर संस्था की मयशुल्क सदस्य भी बनते थे ,तीन चार संकलन भी छपवा लिऐ थे, स्वामी जी को पद्म पुरस्कार के दावेदार बताकर भी भ्रमित किया गया जिसके लिऐ भी स्वामी जी ने अपने सीमित संसाधनों के साथ भी समुचित मेहनत भी शुरू की येन तेन अनुशंसा पत्र, प्रमाणपत्र, विज्ञप्ति की कटिंग फोटोग्राफ के एल्बम भी बनाना शुरू कर दिया था , जूनून के पक्के स्वामी जी ने कला संस्कृति साहित्य से जुड़े बुजुर्ग अभावग्रस्त साथियों के लिए भी मंत्री संतरी के दरबार में गुहार लगाई एक बार भिलाई इस्पात संयंत्र के सी ई ओ के घर भी संयंत्र के अस्पताल में इलाज की गुहार लगाने पहुंच गए साहेब जा चुके थे तो मैडम को ही दरखास्त करते हुऐ कविताएं सुना डाली , मुझे भी रात को उड़ती खबर मिली की आई सी यू में भर्ती एक गंभीर मरीज चिकित्सा कर्मियो का कविताएं सुना कर काफ़ी मनोरंजन कर रहा हैं , जबकी उसकी हालत बेहद खराब हैं मैं समझ गया कौन और किस हाल में है मैं सुबह ही अस्पताल की आईसीयू में पहुंच गया , हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी बेड नंबर दो पर बेसुध लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर था डॉक्टरों के अनुसार रिवर्स आना मुश्किल था procalcitonine और प्रो बी एन पी टेस्ट की जरूरत थी जो शहर की किसी लैब में मुमकिन नहीं थी मैंने ब्लड सैंपल मुंबई की एस आर एल लैब में भेजने की व्यवस्था की पर जल्द ही कविता थम कर स्मरण में तब्दील हो गई , अंतिम यात्रा भी परिवार पड़ोस के अलावा कुछेक साहित्यिक किस्म के मित्र ही नजर आए, अफसोस , गोष्ठियों की सुर्खियो में बुद्धिजीवी ,साहित्यकार ,समाज का दर्पण बनने वाली मीडियापरस्त बिरादरी ऐसे जूनून को एक कतरन का भी साथ ना दे सकी ......
कई बार शब्द चयन और विषयवस्तु की गंभीरता को समझने के लिऐ मेरे पास आते थे व्यस्त देख बड़ी शालीनता से इंतजार करते थे इस दौरान कई बार उन्होंने अपने ही साहित्यिक बिरादरी के उपेक्षित रवैए, छिटाकशी पर दुख व्यक्त किया पर अगले ही पल वह स्वयं उसे चुनौती समझ स्वीकार कर सुधार के प्रयास में लग जाते थे , मैंने साहित्य में अपना अधिकार के भ्रम में एक बार हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी जी को उनके हिंदी के प्रयास और जुनून का सम्मान करते हुऐ एक स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र देने का निर्णय लिया तो शहर के कुछ पटिया छाप तथा कथित रचनाकर साहित्यकर , कवि बने आत्ममुग्ध लोगों द्वारा मेरा ही विरोध कर दिया था जबकि मैं आज भी समाज के किसी वर्ग से स्वामी जी को किसी योग्यता का सर्टिफिकेट देने की अनुशंसा या अपेक्षा नहीं करता ना ही उनके लिऐ किसी तरह की गुहार लगा रहा हूं पर बुद्धिजीवी वर्ग से किसी मनोविज्ञान जुनून को नकारने की इस प्रवृत्ति कतई सही नही मानता, शहर के साहित्य से मैं निराश हूं .....
उम्र के छटवे दशक में मूलत दक्षिण भारतीय इस शख्स ने भिलाई और उसके आसपास के क्षेत्र में अपने आप को दक्षिण भारतीय हिंदी कवि आर मुथुस्वामी जी के रूप में बड़े सशक्त ढंग से स्थापित कर लिया था अंग्रेजी ट्यूशन की औसत आय पर आश्रित तिलक सुशोभित स्वामी जी का हिंदी काव्य के प्रति जुनून मेरे लिऐ आश्चर्य ही था वे कविता पढ़ने के लिऐ अपनी लूना की सवारी पर समूचे जिले के छोटे बड़े आयोजन में हर हाल में पहुंच जाते थे, अगर स्वागत फूल माला स्तर का हुआ तब तो स्वामी जी माला पहने ही पूरा शहर घूमते हुऐ हर अखबार में विज्ञप्ति भी दल आते थे माला पहने ही बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा देते थे , स्वामी जी काफी सरल थे अमूमन हर आयोजन में उनके ही मित्र उनका मजाक उड़ाते थे पर वें इन सब से बेपरवाह तर्रन्नुम में सरस्वती वंदना से शुरू होकर अपनी रचना सुनाने तक डटे ही रहते थे, उनके साथ हर वक्त दवाई का एक डब्बा होता था जिसमे इंसुलिन का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां होती थी जिसे वह कहीं भी इस्तमाल कर लेते थे, साहित्य बिरादरी में उनके प्रति अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही ईर्ष्या थी दरअसल उन्हें काम करते मजदूर , सडक पर खड़े सिपाही दफ्तर में बैठे अफसर , कलेक्टर अधिकारी मंच पर मंत्री संतरी को ऑन स्पॉट खड़े खड़े पूरे तर्रन्नुम के साथ जांघ पर ताल ठोक ठोक कर कविता सुनाते लग जाते थे, जीवटता ऐसी की एक बार अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के आयोजकों से ये दावा कर दिया था कि अखिल भारतीय में अन्य राज्यों की तरह दक्षिण भारतीय राज्य का भी प्रतिनिधि होना चहिए और मंच पर जगह ले ली थी, स्वामी अंत तक स्थापित कवि बनने के लिऐ जूझते रहें गिरते पड़ते चोट लगी हालत में पैसे न होने पर ड्राइवर कंडक्टर को कविता सुनाते कवि सम्मेलनों में पहुंचना आयोजकों से पहले ही कविता पाठ कि विज्ञप्ति छपवा देना इनकी खासियत थी कुछ अखबारों के कर्मचारियों को तो बदस्तूर हर प्रकाशित विज्ञप्ति पर अर्थलाभ भी पुरी ईमानदारी से चुकाते थे, तमाम अभाव के बावजूद स्थापित कवि की मान्यता के आश्वासनों पर शहर की हर संस्था की मयशुल्क सदस्य भी बनते थे ,तीन चार संकलन भी छपवा लिऐ थे, स्वामी जी को पद्म पुरस्कार के दावेदार बताकर भी भ्रमित किया गया जिसके लिऐ भी स्वामी जी ने अपने सीमित संसाधनों के साथ भी समुचित मेहनत भी शुरू की येन तेन अनुशंसा पत्र, प्रमाणपत्र, विज्ञप्ति की कटिंग फोटोग्राफ के एल्बम भी बनाना शुरू कर दिया था , जूनून के पक्के स्वामी जी ने कला संस्कृति साहित्य से जुड़े बुजुर्ग अभावग्रस्त साथियों के लिए भी मंत्री संतरी के दरबार में गुहार लगाई एक बार भिलाई इस्पात संयंत्र के सी ई ओ के घर भी संयंत्र के अस्पताल में इलाज की गुहार लगाने पहुंच गए साहेब जा चुके थे तो मैडम को ही दरखास्त करते हुऐ कविताएं सुना डाली , मुझे भी रात को उड़ती खबर मिली की आई सी यू में भर्ती एक गंभीर मरीज चिकित्सा कर्मियो का कविताएं सुना कर काफ़ी मनोरंजन कर रहा हैं , जबकी उसकी हालत बेहद खराब हैं मैं समझ गया कौन और किस हाल में है मैं सुबह ही अस्पताल की आईसीयू में पहुंच गया , हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी बेड नंबर दो पर बेसुध लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर था डॉक्टरों के अनुसार रिवर्स आना मुश्किल था procalcitonine और प्रो बी एन पी टेस्ट की जरूरत थी जो शहर की किसी लैब में मुमकिन नहीं थी मैंने ब्लड सैंपल मुंबई की एस आर एल लैब में भेजने की व्यवस्था की पर जल्द ही कविता थम कर स्मरण में तब्दील हो गई , अंतिम यात्रा भी परिवार पड़ोस के अलावा कुछेक साहित्यिक किस्म के मित्र ही नजर आए, अफसोस , गोष्ठियों की सुर्खियो में बुद्धिजीवी ,साहित्यकार ,समाज का दर्पण बनने वाली मीडियापरस्त बिरादरी ऐसे जूनून को एक कतरन का भी साथ ना दे सकी ......
कई बार शब्द चयन और विषयवस्तु की गंभीरता को समझने के लिऐ मेरे पास आते थे व्यस्त देख बड़ी शालीनता से इंतजार करते थे इस दौरान कई बार उन्होंने अपने ही साहित्यिक बिरादरी के उपेक्षित रवैए, छिटाकशी पर दुख व्यक्त किया पर अगले ही पल वह स्वयं उसे चुनौती समझ स्वीकार कर सुधार के प्रयास में लग जाते थे , मैंने साहित्य में अपना अधिकार के भ्रम में एक बार हिंदी भाषी तमिल कवि आर मुथुस्वामी जी को उनके हिंदी के प्रयास और जुनून का सम्मान करते हुऐ एक स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र देने का निर्णय लिया तो शहर के कुछ पटिया छाप तथा कथित रचनाकर साहित्यकर , कवि बने आत्ममुग्ध लोगों द्वारा मेरा ही विरोध कर दिया था जबकि मैं आज भी समाज के किसी वर्ग से स्वामी जी को किसी योग्यता का सर्टिफिकेट देने की अनुशंसा या अपेक्षा नहीं करता ना ही उनके लिऐ किसी तरह की गुहार लगा रहा हूं पर बुद्धिजीवी वर्ग से किसी मनोविज्ञान जुनून को नकारने की इस प्रवृत्ति कतई सही नही मानता, शहर के साहित्य से मैं निराश हूं .....

Saturday, September 4, 2021

 कैंची ,डंडा फिर गद्दी की सवारी...

जी हां बात सायकल की हो रही हैं , आज की पीढ़ी सायकल तो चला रही पर छोटी जिससे पैर ज़मीन पर टिका रहें, पहले ही दिन सीधे गद्दी पर बैठ कर ! संतुलन के लिऐ पीछे तीन चक्के लगे हैं कंधे पर पापा मम्मी दादा दादी नाना नानी भाई बहन  या रिश्तेदारो का हाथ रहता हैं हमारे दौर साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी चलाना मुनासिब नहीं होता था।आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना "जहाज" उड़ाने जैसा होता था, घर से बड़ी हिम्मत जुटा के साइकिल ढुगराते हुए निकलते और उधर से कैंची चलाते हुए घर वापस आते, "कैंची" वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे, एक हाथ से हैंडल को दूसरा हाथ साइकिल के हैंडल और सीट के बीच के डंडे को लपेट कर जकड़ लेते थे, ना जाने कितने दफे अपने घुटने और मुंह तोड़वाए पर दर्द हर बार उत्साह में महसूस ही नहीं होता था, गिरने पर भी चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा पोंछते हुए फिर निकल पड़ते थे, कुछ संतुलन बना तब तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और *"ट्रिन ट्रिन " करके बेवजह घंटी बजाते थे ताकी लोग समझ सकें हम सीख गए, सवार हो गए, डंडे के ऊपर इर्द गिर्द पैर दल कर पैडल पर कूदना एक पैर से दबाना दूसरे से उठाना पैरों को लपकाना ये डंडा कला थी, इसमें पैर और जमीन की दूरी ज्यादा होती थी गिरने की संभावना भी... पर यहीं से जिम्मेदारियों की पहली कड़ी शुरू होती थी गेहूं पिसाने लायक के लिऐ साइकल ले जाने की विधिवत इजाजत मिलती थी, चैन उतरना, चक्का डग होना ,हेंडिल या पैडल का फ्री होना, पैडल का चैन कवर से टकराना ये सब समस्याएं आम थी ..

आज की पीढ़ी इस "एडवेंचर" से महरूम है उन्हे नही पता की जीवन की पहली सीख क्या होती हैं चोट का दर्द कैसे सहना और गिर के कैसे संभलना हैं यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी। मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर कैसे संतुलन बनाते थे, खद असफल होकर गिरना फिर पैर पटकते हुऐ रोना अपने से बड़ों को मारना उस पीढ़ी में नहीं था, निसंदेह सायकल चलाना संघर्ष का पहला पाठ था........

Saturday, May 16, 2020

करोना के नाम पर सरकारी राहत ...


भारत मे पूंजीपतियों की कमी नही है और न ही देश में संसाधन,पैसे,साधन,श्रम और उत्पादन की कमी नही है , हर दिन करोड़ो कमाते वाले भी हैवही दूसरी ओर गरीब लोग,किसान आत्महत्या करने को मजबूर है मतलब  कमी है वितरण की । व्यवस्था में इतनी धांधली है कि नीचे से लेकर ऊपर तक सब जगह भ्रष्टाचार है । कृषि तथा युवाओं का देश यदि सही दिशा में इस्तेमाल किया जाता तो आज भारत की स्थिति कुछ और होती । बड़े कॉरपोरेट इतना लोन लेकर बैठे हैं कि उसे चुका पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। ये लोन का पैसा जनता की ही जमा पूंजी हैं जो वह बैंक में रखने को मजबूर होंगे और बैंक डूब जाएँगे कॉरपोरेट लोन की वजह से। 
देश मे 71%जंगल है,92% कोयला है, 92% बॉक्साइट, 98% लोहा,100% यूरेनियम, 85% तांबा, 65% डोलामाइट भारत के उद्योगों के लिए 80% कच्चा माल इन्ही से प्राप्त होता है । जहां खनिज संपदा है यहां के निवासी बहुत गरीब है । पूंजीपति और उद्योगपति इन जगहों को हड़पने की हर जुगत में ल​गे रहते ​​​​​​​​ है और और यहां के निवासी अपने अस्तित्व को बचाने में ।
​करोना के कारण ​सरकार कुछ दर्जन उद्योगपतियों का 68,000 करोड़ माफ़ कर देती है परंतु ​14 करोड मजदूरों को सिर्फ़ 3500 करोड़ देने की बात करती है।
 बिजनेस अखबारों ने भी 20 लाख करोड़ के पैकेज का पोस्टमार्टम करना शुरू कर दिया है.........वो बता रहे हैं कि कल वित्तमंत्री द्वारा घोषित किये गए पैकेज की ज्यादातर घोषणाएं क्रेडिट गारंटी से जुड़ी हैं। इसमें से कोई अतिरिक्त बोझ सरकार पर तभी पड़ेगा, जब किसी तरह का डिफॉल्ट हो जाए,घोषित पैकेज के गुब्बारे की हवा आज सुबह शेयर बाजार ने निकाल दी गुरुवार को भारतीय शेयर बाजार में सेंसेक्‍स शुरुआत 600 अंकों की बड़ी गिरावट के साथ हुई है, साफ दिख रहा है कि जो मार्केट को उम्‍मीद थी कि सीधे तौर पर फायदा पहुंचाया जाएगा. वह पूरी नही हुई , इंडस्‍ट्री को लग रहा था कि सीधे तौर पर बड़ा आर्थिक पैकेज दिया जाएगा. लेकिन अब साफ दिख रहा है कि भारत के कारोबार जगत को सीधे तौर पर राहत नहीं मिलने वाली है.MSME सेक्टर के लिए जारी किए गए एकमुश्त 3 लाख करोड़ रुपये के पैकेज समेत इस पूरी रकम के लिए सरकार के खजाने पर सिर्फ 56,500 करोड़ रुपये का ही बोझ पड़ेगा। ओर जो 56,500 करोड़ रुपये खर्च होने हैं, उसमें 50,000 करोड़ रुपये का हिस्सा टीडीएस और टीसीएस की दरों में 25 फीसदी की कटौती का है। इसके अलावा 4,000 करोड़ रुपये कर्ज में फंसी MSME की मदद के लिए आवंटित किए गए हैं और 2,500 करोड़ रुपये से सरकार ने छोटी कंपनियों के कर्मचारियों के पीएफ को जमा करने का फैसला लिया है
सरकार की ओर से अब तक करीब 13 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान किया जा चुका है, उसमें से सिर्फ 1.26 लाख करोड़ रुपये सरकारी खजाने से जाने हैं। बिजनेस टुडे के विश्लेषण के मुताबिक अभी के 56,000 करोड़ और मार्च में जारी हुए 1.7 लाख करोड़ रुपये में सरकार की ओर से खर्च हुए 70,000 करोड़ को जोड़ दें तो यह रकम 1.26 लाख करोड़ रुपये हो जाती है। यानी कुल 13 लाख करोड़ का पैकेज में सरकार का वास्तविक हिस्सा मात्र सवा लाख  करोड़ ​ ​,
'आत्मनिर्भर भारत अभियान  की बात को मीडिया ऐसे पेश करेगा जैसे मोदी जी ने कोई अनोखी निराली बात कह दी हो, 2019 की आखिरी 'मन की बात' में ओर बनारस में दिए गए भाषण में ये 'लोकल खरीदो' 'लोकल को प्रमोट करो' वाली बातें ये पहले भी कर चुके हैं........दरअसल 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' भी 'मेक इन इंडिया' स्टैंडअप इंडिया, स्टार्टअप इंडिया ओर स्किल डेवलपमेंट के लिए बनाए गए 'स्किल इंडिया' का ही मिला जुला रूप है जिसे ये अपने पहले कार्यकाल के पहले साल में बड़ी जोरशोर से लेकर आए थे लेकिन कालांतर में वह कहा गायब हो गए पता ही नही चला, अब मोदी जी न तो स्टैंडअप इंडिया-स्टार्टअप इंडिया, का नाम लेते हैं न, स्किल इंडिया का न मेक इन इंडिया का ,मेक इन इंडिया की घोषणा 15 अगस्त 2015 को हुई, 'मेक-इन इंडिया' को शुरू हुए 6 साल बीत चुके हैं लेकिन देशी विदेशी विनिर्माता कंपनियों ने भारत में कारखाने लगाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। चीन से पलायन कर रही कंपनियां आज भी भारत में कोई दिलचस्पी नही दिखा रही है जबकि इस दौरान अमेरिका चीन के बीच ट्रेड वार तक शुरू हो गयी है, भारत के पास सबसे बेहतरीन मौका था लेकिन हमने उसे गंवा दियामूलतः मेक इन इंडिया अभियान मैन्युफैक्चरिंग की गति को बढाने का अभियान था जिससे रोजगार जैसे लक्ष्य आसानी से प्राप्त होते मेक इन इंडिया में मूल लक्ष्य निम्न थे......
1)विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 12-14 फीसदी सालाना तक बढ़ाना....
2)2022 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण की हिस्सेदारी 16 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी करना........
3)2022 तक विनिर्माण के क्षेत्र में 10 करोड़ रोजगार का सृजन करना...और रोजगार की हालत तो आप अच्छी तरह से जानते है आँकड़े छोड़िए अपने घर के या अड़ोस पड़ोस के बेरोजगार को ही देख लीजिए............
अभी भी ये ही हो रहा है आत्मनिर्भर भारत अभियान' ओर 'विशेष आर्थिक पैकेज' के नाम पर देश की जनता को दुबारा भरमाया जा रहा है मीडिया की सहायता से जनता को दुबारा मूर्ख बनाया जा रहा है.......जनता दुबारा मूर्ख बनेगी........ क्योंकि मीडिया पुरानी योजनाओं की तो बात करता ही नही है.....जो सवाल करता है उसे ही पहले कठघरे में खड़ा कर देता है सबको सकारात्मक रहने उर्फ़ 'सरकारात्मक' रहने के पैसे जो खिलाए जा रहे हैं.........

Wednesday, May 13, 2020

गरीब


चाक चौबंद व्यवस्था में मुस्तैदी से सर झुकाए खड़े आई एसआई पी एस पुरे शहर की व्यवस्था को किनारे कर.रेड कारपेट पर उसके कदमों का इंतजार करते दिखते हैं ! समुचे शहर के स्कूल कालेजों दफ्तर बंद कर लोगों को बसों में भर कर एक विशाल मंच के सामने भीड़ के रुप में फैला दिला जाता हैं लाखों के फुलों से सजे मंच में तमाम पांच सितारा व्यवस्थाएं जुटाने में महीनों पुरा पुरा सरकारी अमला मेहनत करता हैं, बेहिसाब ख़र्च  !​ हवा को चीरते हुऐ गड़गड़ाते हेलीकॉप्टर से वो अवतरित होते है! उसको देखने-सुनने के लिऐ लगी बड़ी बड़ी स्क्रीन पर दूर से ही देख कर लोग उत्साहित हो जाते हैं,बढ़िया से सूट-बूट में और इको गूँज वाले साउंड में आकर बोलते है..
" मैं ग़रीब का बेटा हूं "
इको साउंड में ग़रीब का बेटा हूं ? गुंजते ही भीड़ भावविभोर हो जाती हैं कितना अपना सा हैं ये गरीबलोकलुभावनी चाशनी में लिपटे लच्छेदार  वादें इरादे ये महसूस कराने को काफी हैं कि  ये ही वह अवतार हैं जिसकी वर्षों से तलाश थी ,सहूलियतो दबा मीडिया सारे पन्ने उसकी भक्ति में पाट देते हैं, ​​ आलेखों में भी वो ग़रीब का बेटा ही रहता है! ​तमाम चैनलो के रिकार्ड  की सुई " ग़रीब का बेटा है " पर अटक जाती हैं गरीब को यकीन कराने में पुरी कायनात लग जाती हैं की की इस सदी का यह चमत्‍कार ही गरीब हैं जो हमारी आपकी गरीबी मिटाने के लिऐ ही अवतरित हुआ हैं,अब गरीब गरीब नही रह जाता वह उस गरीब के समकक्ष महसूस करने लगता है,वह भी गरीबी को मिटाने के लिऐ तैयार हो जाता हैं, अब वह गरीबी को बेबसी नही छाती पर लगा तमगा महसूस करता हैं , वह एक गरीब सरगना का गरीब शार्गिद बन जाता हैं, और गरीबी उसकी शिकार बन जाती हैं , वह भी गरीब की गरीबी को प्रमुखता देने लगता हैं, उसके अधिकार की बिसात पर अपनी सुख सुविधा का दांव लगाने लगता हैं इसी तरह से वर्षों
 से ऐसे गरीब आ रहे हैं ग़रीबी मिटाने के नाम पर गरीब मिटाते हुए खुद अमीर बन रहें हैं ,
हमारी आपकी चर्चाओं में भी वो ग़रीब का बेटा शामिल हो जाता है! लेकिन ग़रीब नही रहता ?

करोना का बाजार

फटे दुध से रसगुल्ला बना कर खाने वाली जमात सक्रिय हैं
, हर तरफ अवसरवादी लगें हैं तमाम टीवी विज्ञापनों में करोना का नाम लिया जा रहा हैं , झाड़ू से अगरबत्ती तक सब में करोना के लिऐ अदम्य मारक शक्ति का बखान हो रहा हैं , तमाम माडल कलाकार जिंगल में करोना पर जीत की बातें कर रहे हैं ,लगभग हर दिन समाचार चैनल करोना पर वैक्सीन बनाने , प्रयोग करने , सस्ते , वेंटीलेटर, सेनेटाइजर टनल ,पीपीई कीट, बनाने की बात कर रहें हैं, सेनेटाइजर और मास्क सड़कों पर बिक रहे हैं

यह कटु सच हैं कि गली में लम्बे समय से fair & lovely को  fresh & lovely , Lifeboy को Lifebody और Dora को  Dara कह कर गरीब लोगों को अमीरी के शौक बेच कर गली का लाल हो रहा लाला भी गरीब के चुल्‍‍हे की आंच जलाऐ रखता हैं, पर आज इलाज के नाम पर सम्‍मानीय पेशे में मुनाफखोरी का दीमक लग गया हैं, इलाज के नाम पर खतरनाक रसायनिक दवाई के की बाढ आ गई हैं, स्‍वयं चिकित्‍सक इलाज के नाम पर मरीज की नब्‍ज के बजाय जेब टटोल रहा हैं, संवेदना की खाट पर लि‍टाने के बजाय इलेक्‍टानिक उपकरणो की तार में लपेट देना ज्‍यादा लाभकर समझता हैं, सोचिऐ क्‍या हर किसी को डा‍क्‍टर मैं हूं कि आप सा टका सा जबाब देने वाली चिकित्सक की जानकारी के बिना आक्‍सीजन के सिलेण्‍डर मरीज को लगाया जा सकता हैं, गुणवत्ताविहिन वेटिंलेटर अस्‍पताल में आ सकता हैं , स्‍तरहीन टेस्‍ट कीट का प्रयोग किसी प्रयोगशाला में हो सकता हैं कतई नही राजनैतिक निर्णय हो सकते हैं पर दबाब नहीं चिकित्‍साजगत की अपनी एक कसौटी हैं जिस पर स्‍वय चिकित्‍सक को ही अपने पेशे का रगडना हैं और गुणवत्ता निर्धारित करनी हैं कटु सच ही तो हैं कि अगर डायबीटिज्‍ की बीमारी के लिऐ दवा पर गर कोई सफल अनुसंधान कर ले तो चिकित्‍सा का नोबेल पुरष्‍कार भी उसके सम्‍मान में कम होगा, डायबीटिज् का विश्‍वव्‍यापी कितना बडा बाजार हैं, और इसके शर्तिया इलाज की कितने सालों से कितनी बडी किमत चुका जा रही हैं कल्‍पना से परे हैं......

आपने गिनी पिग्स का नाम तो सुना होगा। यह चूहों की परिवार की प्रजाति होती है इन्हें प्रयोगशालाओं में दवाओं, घातक रसायनों के प्रयोग के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

इस समय कोरोना से संक्रमित मरीज ही नहीं हम सब की हालत गिनी पिग्स जैसी हो चुकी है।

हर कंपनी चाहती है कि इस अवसर का फायदा उठाने में नित नये आश्वासन बेच कर धन बटोरने में लगा हैं ,सवाल जीवन से जुड़ा हैं इसलिऐ गाहे-बगाहे सबकी दुकान चल रही हैं , तमाम खाद्य और औषधीय मापदंडों को तिलांजलि दे दी गई हैं, ताजा उदाहरण करोना के लेकर...

प्रधानमंत्री मोदी का करीबी समझा जाने वाला एक जइी बूटी व्यापारी और पतंजलि कंपनी का मालिक रामदेव भी अवसर का लाभ उठा रहा है। इंदौर के कलेक्टर मनीष सिंह ने कल रामदेव की एक आयुर्वेदिक दवा को कोरोना मरीजों पर परीक्षण करने की अनुमति दी है।

कलेक्टर महोदय बयान दे रहें हैं पतंजलि रिसर्च फाऊंडेशन के प्रस्ताव को अनुमति देते हुए एक एमबीबीएस डॉक्टर और एक आयुर्वेदिक डॉक्टर की निगरानी में परीक्षण की अनुमति दी गई है। वो भी सिर्फ और सिर्फ 48 घंटे में ,

कलेक्टर कौन होता है अनुमति देने वाला ?

भारत का क्लीनिकल ट्रायल नियम कहता है कि इसकी अनुमति स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया देगा।

ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया की एथिक्स कमेटी पूरे परीक्षण की निगरानी रखेगी और गिनी पिग बने मरीज की मौत या शारीरिक नुकसान होने पर उसे मुआवजा दिया जाएगा।

यह कैसा खिलवाड़ हैं ? अगर रामदेव की दवा खाकर मरीज की मौत हो जाती है तो प्रशासन उसे कोरोना से मौत मानकर मुर्दे को सीधे जला देगा,

निश्चित तौर पर हमारे निर्धारित मापदंड बंदर के हाथ उस्‍तरे वाले ही हैं,