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Saturday, September 4, 2021

 कैंची ,डंडा फिर गद्दी की सवारी...

जी हां बात सायकल की हो रही हैं , आज की पीढ़ी सायकल तो चला रही पर छोटी जिससे पैर ज़मीन पर टिका रहें, पहले ही दिन सीधे गद्दी पर बैठ कर ! संतुलन के लिऐ पीछे तीन चक्के लगे हैं कंधे पर पापा मम्मी दादा दादी नाना नानी भाई बहन  या रिश्तेदारो का हाथ रहता हैं हमारे दौर साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी चलाना मुनासिब नहीं होता था।आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना "जहाज" उड़ाने जैसा होता था, घर से बड़ी हिम्मत जुटा के साइकिल ढुगराते हुए निकलते और उधर से कैंची चलाते हुए घर वापस आते, "कैंची" वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे, एक हाथ से हैंडल को दूसरा हाथ साइकिल के हैंडल और सीट के बीच के डंडे को लपेट कर जकड़ लेते थे, ना जाने कितने दफे अपने घुटने और मुंह तोड़वाए पर दर्द हर बार उत्साह में महसूस ही नहीं होता था, गिरने पर भी चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा पोंछते हुए फिर निकल पड़ते थे, कुछ संतुलन बना तब तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और *"ट्रिन ट्रिन " करके बेवजह घंटी बजाते थे ताकी लोग समझ सकें हम सीख गए, सवार हो गए, डंडे के ऊपर इर्द गिर्द पैर दल कर पैडल पर कूदना एक पैर से दबाना दूसरे से उठाना पैरों को लपकाना ये डंडा कला थी, इसमें पैर और जमीन की दूरी ज्यादा होती थी गिरने की संभावना भी... पर यहीं से जिम्मेदारियों की पहली कड़ी शुरू होती थी गेहूं पिसाने लायक के लिऐ साइकल ले जाने की विधिवत इजाजत मिलती थी, चैन उतरना, चक्का डग होना ,हेंडिल या पैडल का फ्री होना, पैडल का चैन कवर से टकराना ये सब समस्याएं आम थी ..

आज की पीढ़ी इस "एडवेंचर" से महरूम है उन्हे नही पता की जीवन की पहली सीख क्या होती हैं चोट का दर्द कैसे सहना और गिर के कैसे संभलना हैं यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी। मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर कैसे संतुलन बनाते थे, खद असफल होकर गिरना फिर पैर पटकते हुऐ रोना अपने से बड़ों को मारना उस पीढ़ी में नहीं था, निसंदेह सायकल चलाना संघर्ष का पहला पाठ था........

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