हमारे आपके आस पास की बाते जो कभी गुदगुदाती तो कभी रूलाती हैं और कभी दिल करता है दे दनादन...

Sunday, November 15, 2015

बी जे पी की मुसीबत, राज्या सभा

आत्ममुग्ध मोदी जी को बिहार चुनाव परिणाम के बाद विदेश जाने से पहले देश की जनता के सामने आकर बिहार के चुनाव परिणामो को सर आंखो पर लेते हुऐ बिहार की जनता को धन्यावाद देना चाहिये था की उन्होखने समय रहते तमाम लालच और भय को दरकिनार कर अपने विवेक से मोदी जी को यथा र्थ के धरातल पर ला दिया, इससे मोदी की मीडियाई छबि भी बरकरार रहती और आडवानी, मुरली मनोहर जोशी , अरुण शौरी, शत्रुघन सिन्हाी, यशवंत सिन्‍‍हा और आदी आदी के मुहं भी न खुलते, साथ ही कम से कम पार्टी के अंदर की बाते सार्वजरनिक भी न होती, सा‍थ ही नमस्तेी लंदन के दौरे में भी विदेशी मीडिया रायता नही फैलाती, पिछले साल लोकसभा चुनाव के नतीजों के तत्काल बाद राहुल गांधी ने भी तो मीडिया के सामने आकर हार की जिम्मेदार अपने ऊपर ली ही थी. यह और बात है कि पूरी पार्टी उनके दामन को बचाने में लगी रही. मोदी जी को भी ये समझना ही होगा मई 2014 में बिहार के लोगों ने नरेंद्र मोदी के एक सुर मोदी मोदी मोदी किया ही था । जिस बिहार ने मई 2014 में जातिय बंधन तोड़ उन्हें जिताया था वे यदि इतनी जल्दीद वापिस जात के समीकरण में कैसे लौट गऐ , कैसी नाराजगी हैं, भाजपा के लोग आत्ममंथन किये बिना आज मोदी अमित शाह को बचाने के लिऐ इतने उतावले हो गऐ हैं कि वे बिहार की जनादेश का सम्माअन करने के बजाय बिहार के लोगो को ही गुमराह व जातिवादी कह रहे हैं , मतलब लोकसभा के मी‍ठे अंगूर एकाएक खटटै हो गऐ हैं, केद्र में काबिज भाजपा को भी ये सोचना ही चाहिये कि 18 महीने जैसे राज चला, प्राथमिकताएं जैसी रहीं, जैसे चेहरे रहे, जैसे राजनैतिक तेवर रहे, बुनियादी जरूरतो का जो हाल हुआ, वह आम मतदाता को प्रभावित न कर सका, दरअसल भारत को गुजरात समझना एक बडी भूल हैं, गुजरात में जिस अफसरशाही, सिस्टम के बूते 12 साल राज चला, वैसा भारत के पैमाने पर संभव नहीं है। भारत न बौनों से चल सकता है और न अफसरों से। उसके लिए जमीनी-लोकप्रिय करिश्माेई नेताओं की भीड़ और सियासी कौशल चाहिए। उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल और पूरा भारत को काबू में रखने के लिऐ असली दमदार व जनता-पार्टी-कार्यकर्ताओं की नब्ज जानने वाले नेताओं की केंद्र और प्रदेशों में हैसियत की जरूरत होगी , जो 18 महीनो में प्रादेशिक स्तिर पर कही दिखी नही, नरेंद्र मोदी के साथ से समस्या है कि उन्होंने 18 महीने सबकुछ अपने एक चेहरे से साधना चाहा। अपने इर्द-गिर्द बौनों, पिग्मियों को रखा ताकि सब उन्हें देखते रहें। इस एप्रोच से मुख्यमंत्री तक का राज चल सकता है लेकिन सवा अरब लोगों के भारत के पैमाने का नहीं। न ही दो करोड़ अफसरों, उद्योगपतियों-कारोबारियों के मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया के जुमलों से एक अरब 27 करोड़ लोगों की भावनाएं जुड़ी रह सकती हैं। गरीब को गरीब की भाषा चाहिए, किसान को किसान की, हिंदू को हिंदू की भाषा और वह भी उसकी बोली, उसके अंदाज में। मोदी भक्तक भी मानें या न मानें बिहार की प्रकृति नरेंद्र मोदी को समझाने की कोशिश की ही है। बदलने का काम सोच में, फैसलों में, मंत्रियों में, चेहरों में, व्यवहार, कार्यशैली और प्राथमिकताओं में होना चाहिए। इस सवाल का जवाब भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में मिल जाए, इसकी उम्मीद बहुत कम ही रहती है. हर जीत के बाद श्रेय लेने के लिए बड़े नेता तो सामने आते हैं. लेकिन हार के बाद परिस्थितियां बदल जाती हैं. उसी बड़े चेहरे को बचाने की जद्दोजहद चलने लगती है. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत का सेहरा नरेंद्र मोदी के सिर बंधा था. लेकिन बिहार की हार के लिए बीजेपी संसदीय बोर्ड ने कह दिया कि ये पार्टी की नाकामी है, मोदी की नहीं. आखिर इस जंग के सेनापति तो वही थे. लेकिन हार को लेकर स्वयं मोदी ने सार्वजनिक तौर कुछ नहीं कहा और तो और बजाय सामने आने के वे भाइे के 600 गाने बजाने वालो के साथ लंदन के वेम्बेनल में अपनी चमत्का री छबि बनाने की मुहिम में चले गऐ, सत्तां में भारी बहुमत से काबिज भाजपा अभी भी इस बात से बेपरवाह हैं कि संसद आज भी विपक्ष के रहमोकरम पर चल रही हैं , दिल्लीे, बिहार के चुनाव परिणाम अगर आगे के विधानसभा चुनावो में भी दोहराये जाते हैं तो सरकार के लिऐ राज्य,सभा की मुसीबत से निकलना और मुश्किल हो जाऐगा ...... .सतीश कुमार चौहान 9827113539

Friday, November 6, 2015

शाहरुख खान भी देश के विकास में योगदान देने वाला उद्वोग हैं

शाहरुख खान भी देश के विकास में योगदान देने वाला उद्वोग हैं ........................इन्टॉलरेंस जैसे गैरवाजिब विषय पर हो रही अनावश्य क बयानबाजी में देश के महत्व.पूर्ण बॉलीवुड सुपरस्टार बादशाह, लाखों करोड़ों दिलों की धड़कन बन चुके शाहरुख खान, जो आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। बच्चे से लेकर बुजुर्गों तक हर उम्र के लोग उनकी फैन लिस्ट में शामिल हैं। खासतौर पर आज के युवा वर्ग पर उनका जादू सर चढ़कर बोलता है। आखिर आ फंसे हिन्दूरत्व की बहस में सोमवार को अपने 50वें बर्थडे पर शाहरुख खान ने एक पत्रकार द्वारा सम्मांन लौटाने वाले सवाल के जबाब देश के माहौल को लेकर चिंता जताई थी। शाहरुख ने कहा था, ''देश में इन्टॉलरेंस बढ़ रहा है। ऐसे में, अगर मुझे कहा जाता है तो एक सिम्बॉलिक जेस्चर के तौर पर मैं भी अवॉर्ड लौटा सकता हूं।'' शाहरुख ने कहा, ''भारत में कोई देशभक्तं सेक्युलरिज्म के खिलाफ जाकर सबसे बड़ी गलती करता है। हम कितना भी विचारों की आजादी की बात कर लें, लेकिन कुछ कहने पर लोग मेरे घर के बाहर आकर पत्थर फेंकने लग जाते हैं। लेकिन हां, अगर कभी किसी मुद्दे पर स्टैंड लेना होगा, तो मैं उस पर डटा रहूंगा।'' इस बात को कुछ मीडियापरस्त राष्ट्रावादीयो ने लपक लिया और हाय तौबा मच गई, योग के साथ जडी बूटी के बडे कारोबारी रामदेव ने शाहरुख की देशभक्ती पर सवाल उठाते हुऐ कहा कि उन्हें यूपीए की सरकार के दौरान 2005 में पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद की अपनी सारी कमाई दान कर देनी चाहिए या फिर पीएम राहत कोष में डाल देनी चाहिए। नहीं तो हम समझेंगे कि जिसकी चाकरी करके उन्होंने अवॉर्ड पाया, उसे ही खुश करने के लिए शाहरुख खान असहिष्णुता की बात कर रहे हैं।’ इसी तरह के अतिमहत्वरकांक्षी बीजेपी महासचिव और मध्यकप्रदेश के पूर्व मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने ट्रिवट किया कि खान रहते भारत में हैं, पर उनका मन सदा पाकिस्तान में रहता है। उनकी फिल्में यहां करोड़ों कमाती हैं, पर उन्हें भारत असहिष्णु नजर आता है। यह देशद्रोह नहीं तो क्या है? भारत में असहिष्णुता का माहौल बनाना षड्यंत्र का हिस्सा है। शाहरुख का असहिष्णुता का राग पाक व भारत विरोधी ताकतों के सुर में सुर मिलाने जैसा है। जब 1993 में मुंबई में सैकड़ों लोग मारे गए, तब शाहरुख खान कहां थे? जब मुंबई पर 26/11 को हमला हुआ, तब शाहरुख कहां थे ?" वे भूल गऐ कि प्रतिभा के धनी शाहरुख के पिता ‍ताज मोहम्मद खान एक स्वतंत्रता सेनानी थे, देश के लिऐ उनके खून को भी मिटाया नही जा सकता ,इसी तरह हिन्दू त्वब की एक और पैरोकार विश्व हिंदू परिषद् नेता साध्वी प्राची ने कहा- शाहरुख खान को पाकिस्तानी एजेंट कह कर फरमान सुना दिया कि उसे पाकिस्तान ही चले जाना चाहिए। जैसा कि गोरखपुर से बीजेपी सांसद आदित्यनाथ ने कहा कि शाहरुख और आतंकी हाफिज सईद की भाषा में कोई फर्क नहीं है। आदित्यनाथ ने कहा, ''इस देश का बहुसंख्यक समाज अगर उनका बहिष्कार कर देगा तो उन्हें भी आम मुसलमान की तरह भटकना होगा। किंग खान के बचाव में लालू और केजरीवाल के अलावा शिवसेना सांसद संजय राउत ने कहा- देश टॉलरेंट है। मुस्लिम भी टॉलरेंट हैं। शाहरुख खान को सिर्फ इसलिए टारगेट नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे मुस्लिम हैं। शाहरुख इसलिए सुपरस्टार हैं क्योंकि उन्होंने कभी धर्म का इस्तेमाल नहीं किया। शाहरुख को बहस में नहीं घसीटा जाना चाहिए। गोमांस रखने के शक पर दादरी में एक शख्स की हत्या और कन्नड़ लेखक कलबुर्गी के मर्डर के बाद अवॉर्ड वापसी की शुरुआत हुई। तब से 40 से ज्यादा लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए हैं।, 13 इतिहासकार और कुछ वैज्ञानिकों ने भी राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाए हैं।,दिबाकर बनर्जी जैसे 10 फिल्मकारों ने नेशनल अवॉर्ड लौटाए हैं।अभिनेत्री शबाना आजमी तो आहवान ही कर दिया "देश में इन्टॉलरेंस बढ़ रहा है। हम सभी को सिम्बॉलिक जेस्चर के तौर पर अवॉर्ड लौटाने चाहिए, इतिहासकार इरफान हबीब तो संवैधानिक सीमाऐ लांघते हुऐ कह दिया कि इस्लामिक स्टेट और आरएसएस में ज्यादा फर्क नहीं है। इन घटनाओ और बयानो के बीच जब देश की असहिष्णुता पर समूचा देश पीएम मोदी को सुनना चाहता हैं, तब जब देश के यही पी एम विदेश में घूम घूम कर देश के अर्थव्यस्था और व्यापार की बात करते हैं. प्रजातांत्रिक ताने बाने, धर्मनिरपेक्षता की गंगा जमुनी तहजीब घुली मिली बेमिसाल एकता का मिसाल दे देकर विदेशी निवेश लाने का प्रयास कर रहे हैं जिससे देश में रोजगार के अवसर पैदा हो सके, देश विकास के पथ पर गतिमान हो सके, ठीक तब तो देश में प्रजा तंत्र के देश के सयाने कहे सत्ताप के जनप्रतिनिधियो को भी अपने बयानो से माहौल खराब करने के बजाय संभालने का प्रयास करना चाहिये न कि शाहरुख को पाकिस्तान भेजने की बात करे, आपको पता है कि उनकी वजह से कितने लोगों को रोज़गार मिलता है. मैं कहता हूँ कि शाहरुख ख़ान जैसे लोग अपने आप में उद्योग हैं." कल सलमान परसो आमीर आपके राडार पर होगा क्योाकी मुस्लहमान हैं प्रजातंत्र में समर्थको के सर गिनकर ही नितिनिर्धारक बन किसी का देश निकाला किया जा सकता हैं तो कर लो तुलना सिर्फ और सिर्फ पांच साल के लिऐ किसी कस्बेर जा जिले के तीस चालीस फिसदी लोगो लोगो अपेक्षा अभिनेताओ की सालो साल चलने वाली इनकी बेशुमार दिवानगी , टैक्से की रकम और रोजगार के अवसर से जो किसी उद्वोग से कम नही हैं , जिसका देश के विकास में योगदान को झुठलाया नही जा सकता ................ सतीश कुमार चौहान 98271 13539

Saturday, October 31, 2015

क्या भारत का पाकिस्तासनीकरण हो रहा हैं ...

क्या भारत का पाकिस्तासनीकरण हो रहा हैं ... पाकिस्तान, दक्षिण एशिया का एक महत्वापूर्ण देश है.भारत का अहम पड़ोसी होने के बावजूद राजनीतिक अस्थिरता और तालिबान के बढ़ते प्रभाव के चलते पाकिस्तान को विफल देश घोषित किया जा चुका है,दरअसल तालिबान एक ऐसी जमात हैं जो धार्मिक कट्रटरता के चलते देश में अमन तरक्कीत और खुशहाली को भी लगातार एक तरफ कर रही हैं अपने धार्मिक ऐजेंडे पर ही काम कर रही हैं, चूकी हम हिन्दू स्ताकनी इसके पडोसी होने के साथ सा‍थ प्रजातांत्रिक दायरे में रहते हुऐ धर्मनिरपेक्ष तानेबाने में बुने हुऐ हैं ,इसलिऐ हमारे गौरव व वैभवशाली विकास का तमाम एशियाई देश नही समूचा विश्व सम्मा न करता हैं,पर आज विश्वै के सबसे बडे हमारे लोकतंत्र में घट रही कुछ घटनाओ से समूचा विश्वश चिन्तिवत हैं , क्या पाकिस्तान का धर्म आधारित मॉडल हमारा आदर्श बन रहा है ? क्यां ,देश की आवाम सामाजिक राजनितिक आर्थिक और धार्मिक धुर्वीकरण का शिकार हो रही हैं, हिन्दुक बाहुल्ये राष्ट्रा में यह चितां मुसलमान के ही लिऐ नही बल्कि अब तो हिन्दुक के मा‍‍थे पर भी चिन्ता की लकिरे खीच रही हैं पिछले कुछ समय में बेतहाशा बढ़ती असिहुष्णता और प्रयोजित अत्या चार, जिसमें सरकार की भागीदारी अगर न भी हो पर भूमिका तो नैतिक रूप भयावह संकेत देती हैं, कया हमारी भारतीयता पर राष्ट्र बोध भारी पड रहा हैं ? क्या अनेकता में एकता का गौरव गान हम ही भूल कर हम वहीं गलती नहीं कर रहे जो हमारे पडोसी देश पाकिस्तायन की हू‍कूमत ने की और खामियाजा पुरा मुल्क भुगत रहा हैं, जिसकी बेबसी आज जगजाहिर हैं ,हम पाकिस्तान की तरह बर्बाद न हो ! शायद इन्हीप चिंताओ में आज कलाकार, विचारक ,लेखक वैज्ञानिक और बुद्विजीवी वर्ग सांकेतिक सम्माभन लौटाते हुऐ गुहार कर रहे हैं , लेकिन सद्भाव और एकता की कोई सलाह जिन्हें मंज़ूर नहीं उनका यहाँ क्या काम ? इसलिऐ सरकार न्‍ तो कोई सार्थक पहल कर रही हैं और न ही इन दुखद घटनाओ पर अपना रूख साफ कर रही हैं ये सच हैं कि पाकिस्तान से भारत कोई तुलना हो ही नहीं सकती. पाकिस्तान इस्लामी गणतंत्र देश है जबकि भारत धर्मनिरपेक्ष.और यही धर्मनिरपेक्षता हमें सतत रूप से गौरवशाली और विकासशील बना रही हैं ,और यह भी नकारा नही जा सकता की इसमें हिन्दु ओ के अलावा सिख, मुसलमान और अन्यऔ धर्मो का भी योगदान हैं और भारत की धर्मनिरपेक्षता पर खुद मुस्लिम नेता भी मानते हैं कि मुस्लिमों के लिए भारत से अच्छा देश कोई हो नहीं सकता. पाकिस्ताधन में 1947 में सिख और हिंदुओ की जनसंख्याे 25% -30% से घटकर अब 2% -3% के आसपास होने का अनुमान इसी बात की ओर र्इशारा करता हैं कि पाकिस्तादन भारतीय हिन्दुमओं का अपने विकास में न तो बेहतर ईस्तपमाल कर सका और न में शांति और असिथरता की तस्वी र प्रस्तु त कर सका जिससे समूचे विश्वप में इसके प्रति सकरात्मतक और रचनात्माक विश्वा स कायम हो सके ,और इसी का खामियाजा आज पाकिस्ताून के हालात बयान कर रहे हैं , पिछले कुछ दिनो से हमारे देश में भी एक ऐसा परिदृश्य बन रहा हैं या बनाया जा रहा या महसूस किया जा रहा हैं कि हम भी वही गलती कर रहे हैं जो पाकिस्ताीन कर रहा हैं परस्पबर विरोध का जो माहौल बन रहा हैं उसे तुरंत विश्वास में बदलने की जरूरत हैं ,पर कलाकार, विचारक ,लेखक वैज्ञानिक और बुद्विजीवी वर्ग की इसी चिंता को न केवल बडे दुर्भाग्या के साथ बिना किसी ठोस आश्वारसन के खारिज किया जा रहा हैं साथ ही उन्हेक काग्रेसी/ वामपंथी कह कर नकारा भी जा रहा हैं ,पाकिस्‍तान के अलगाववादी भी ऐसा ही करतें रहे जैसा आज हमारे रा‍‍ष्‍टवादी संगठन कर रहे हैं अपने आप को सुसंस्कृ त कहते हैं पर विध्वं स और अपशब्दोद के साथ तर्क कुतर्क करेगें, मुल तत्व पर बात नहीं करेंगे बल्कि उससे उल्टाी कोई मुद्दा उठाकर अनावश्य्क आक्रोश और तनाव का माहोल बनाऐ रखेगें , फासीवाद और समाजवाद को एक दुसरे की चाशनी में उबालते रहेगें , उनके आतंक की बात कि जाऐ तो वो कहेंगे कि अरे आप तो इस्ला मी आतंक के समर्थक हैं। आप सरकार की नितिओ का विरोध करने का जिम्माव केवल इस्ला मिक ,काग्रेसी या वामपं‍थी का ही हैं, देश के निर्माण अमन चैन और गौरव में कलाकार, विचारक ,लेखक वैज्ञानिक और बुद्विजीवी वर्ग का कोई महत्व नही हैं , अगर के लोग ये मान भी ले कि देश के मतदाता ने संघी हिन्दूम राष्ट्र के पक्ष में वोट किया हैं तो देश का अमनपरस्त हिन्दूी क्योत इसका खामियाजा भूगते, इसके लिऐ बहूमत की सरकार हैं, आवश्य क बिल लाके संवैधानिक परिवर्तन कर ले इस तरह सरकार का चुप रहना और जबाबदेह पदो पर बैठे लोगो का मनमानी करना क्याल भारत को पाकिस्तालनी कोलोन बनाने का प्रयोग हैं , क्याै भारत के सवा सौ करोड लोगो का पाकिस्तासनीकरण किया जा सकता हैं क्याा ये संभव हैं ,जबकी ये कटु सच हैं कि हमारे देश की धर्मनिरपेक्षता ही हमारी सफलता और सौन्दसर्य हैं ;;;;;

Friday, October 23, 2015

सत्‍ता की मलाई में फिसलती जुबान......

स्‍कूल के दौरान हिन्‍दी का एक निबंध बार बार याद आता हैं कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता......इसके पीछे हमारे गुरुजनो का यही मनोविज्ञान रहता होगा की हम जनप्रतिनिधियो के आचार विचार रहन सहन के सा‍थ उनकी समाज के प्रति जीवटता ,उत्‍तर दायित्‍व, संवेदना और व्‍यवहारिक बोलचाल को न सिर्फ समझे बल्‍कि जीवन में इसका अनुष्‍सरण किया जा सके क्‍योकी प्रजातात्रिक देश की राजनीति में जनप्रतिनिधियों का बडा महत्‍व होता हैं और ये देश के सयाने माने जाते हैं ,पर तब बड़ी बेशर्मी महसूस होती है जब ये लगता है कि हमने ही बेशर्म और बदजुबान लोगों को भी चुनकर अपना भाग्य निर्माता बना दिया है। संतोष भी होता है तब जब इस तरह के लोगों को जनता भी उनके ही अंदाज में गरियाते हुए खदेड़ देती है। इन सब बातों से यह तो तय है कि चीजें इस तरह नहीं चलेंगी, नहीं चलनी चाहिए। प्रेस को प्रेस्टियूट बताने वाले केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने विवादित बयान दिया है। हरियाणा में दलित बच्चों को जिंदा जलाकर मारे जाने की वारदात पर उन्होंने कहा है कि अगर कोई कुत्ते पर पत्थर मारता है तो इसमें सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती है।इस बीच गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने उत्तर भारतीयों पर निशाना साधा है। रिजिजू ने उत्तर भारतीय लोगों को कानून तोड़ने वाला बताया है। रिजिजू के मुताबिक उत्तर भारतीयों को कानून तोड़ने में मजा आता है और ऐसा करना वो अपनी शान समझते हैं। डसी तरह मंच से चाराचोर कहने पर लालू का अमितशाह को बम्‍हपिशाची और तडीपार कहना, क्‍या हम इन्‍हे लोग अपना रोलमाडल मानने को तैयार होगें , भाजपा के वरिष्ठ नेता एव वर्तमान प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कांग्रेस को बुढ़िया कह दिया। प्रियंका गांधी ने कांग्रेस की तरफ से सवालिया लहजे में इसका जवाब दिया और पत्रकारों से ही पूछा, क्या मैं बुढ़िया लगती हूं? मोदी रूके नहीं। उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, ठीक है। अगर कांग्रेस वालों को बुढ़िया वाली बात पसंद नहीं है तो मैं बुढ़िया नहीं कहूंगा। यह कहूंगा कि कांग्रेस तो गुड़िया की पार्टी है। अब जरा सोचिए। ये बुढ़िया और गुड़िया की बहस से देश का कौन सा भला होना है? एक परिपक्व राजनेता इस तरह की निरर्थक बात क्यों कर रहा है? अजीब सी नौटंकी चल पड़ी है पूरे देश में। इसी तरह भाजपाइयों द्वारा कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी के डमी को संस्कारित करने के लिए उन्हें शिशु मंदिर में दाखिले का नाटक किया गया, उसी चौक पर दूसरे दिन कांग्रेसियों ने बीच चौराहे पर राजनीति की पाठशाला खोल दी। इस पाठशाला में ततकालीन भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के डमी को बदजुबान और मंदबुद्धि करार देते हुए न सिर्फ उन्हें राजनीति की पाठशाला से टीसी देकर स्कूल से निकालने का ड्रामा हुआ, बल्कि गडकरी को मानसिक अस्पताल में दाखिला देने के लिए उनकी मां को सलाह भी दी गई इन नेताओ को इस तरह के बयान/ कारनामों से हासिल क्‍या होता हैं क्‍यों ये इतने बेबाक, निरकुंश और गैरजिम्‍मेदार होकर बोलते है, देश की व्यवस्था उनकी बपौती नहीं है और डेमोक्रेटिक सिस्टम में इस तरह की बाते की इजाजत नहीं है। फिर इस तरह के बयान का क्या औचित्य है? क्या सिर्फ एक समुदाय विशेष को इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए, या राजनीति तानाशाही हूकूमत चलाई जाने का प्रयास हैं इस तरह के बयान और बातों को हतोत्साहित किया जाए, किया जाना चाहिए।, आज रैंप्प पर कम से कम कपडे पहनने वाली माडल के बचे कपडे का भी फिसल जाना और नेताओ की जुबान फिसल जाना एक ही तरह कारनामा हैं, जो बेशक मीडिया के लिऐ मसाला तो हैं ही, हम किन लोगो को सवा सौ करोड आबादी के नीतिनिर्धारण के लिऐ देश की सबसे बडी सयानो के जमात संसद में भेज रहे हैं, विदेश से डिग्री लेकर आऐ, चाल चरित्र और चेहरे की बात करने दल से जुड कर हाथ काटने की बात कहने वाले वरूण गांधी, बडे नेता गडकरी जी जो फिल्मी संवाद की तरह कुत्ते, औरंगजेब की औलाद, गधा, सुअर, हरामी जैसे संबोधन अपने प्रतिद्वंद्वी पार्टी के नेता के प्रति व्यक्त करते हैं। एक बददिमाग कांग्रेसी नेता ने तो मर्यादा की सारी सीमां लांघ दी। उसने कहा, भाजपा को चाहिए कि अटल और आडवाणी जैसे लोगों को अरब सागर में डाल दे। उन्‍हें कौन समझाऐ कि देश उम्र से नहीं अंदाज से चलता है। जबकी इन दो नेताओ ने कभी अपने राजनीतिक विरोधी नेताओं पर अपशब्दों का उपयोग नहीं किया। अटल अलंकारित ढंग से मुद्दे का विरोध करते रहे। उनकी ऐसी विरोधी एवं दमदार बातों की स्वयं जवाहर लाल नेहरू तारीफ करते थे। लाल कृष्ण आडवाणी एवं मुरली मनोहर जोशी विरोध किए जाने वाले विषय पर बहुत ही तर्कसंगत शालीन व सीमित शब्दों में अपनी बात रखते हैं । राजनैतिक लाभ के लिऐ धार्मिक धुव्रीकरण का प्रयोग करने वाले औवेशी, आजमखान, गिरीराज , साध्‍वी जैसे लोगो को देश समाज दुनिया गर जानती भी हैं तो सिवाय कैंची सी चलती तेजाबी जूबान के कौशल करिश्‍मे के लिऐ,वर्तमान सदर्भो में सत्‍ताधारी पार्टी के लिऐ क्‍या ये समझना जरूरी नही होगा कि एक परिपक्व दल का नुमांइदा या राजनेता इस तरह की निरर्थक बात क्यों कर रहा है ? यह सवाल सिर्फ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व जनसंघ की गलियों से संस्कार पा चुके हिंदुत्ववादी विचारधारा वाले जनसंघ पार्टी के बाद अब तीन दशक की आयु वाली भारतीय जनता पार्टी जो अपने आपको संस्कार संपन्न एवं संस्कारित पार्टी के रूप में महिमामंडित व प्रचारित करने वालो से भी इसलिऐ पुछना जरूरी हो जाता हैं,क्‍योकी आज यह एक विशाल जनमत के साथ खडी पार्टी हैं, एक बडा जनाधार इसकी देश की दशा दिशा बदलने के लिऐ इसके साथ हैं , यह नीतिगत निर्णयो के लिऐ प्रजातांत्रिक सम्‍पन्‍न दल हैं फिर इस तरह कि बदजुबानी क्‍यो और क्‍यो मुखिया ने बातो पर अंकुश लगाने में असफल हैं ? क्‍या ये दलगत रा‍जनीति की आपसी विरोधाभास नही कि जबाबदेह पदाधिकारी निरकुशं और कदाचार की भाषा प्रयोग कर रहे हैं ? क्‍या अपनी विफलताओ से ध्‍यान हटाऐ रखने का सुनियोजित प्रयोग ? क्‍या राजनीति को मंच के सामने हर ताली बजाने वालों की एक भीड़ भेंड़-बकड़ी नजर आती हैं ? क्‍या मतदाता जनप्रतिनिधियो के बिगडे बोल के प्रति नकारात्‍मक रुख अपनाते हुऐ इन्‍हें राजनीति से बाहर का रास्‍ता दिखाते हुऐ चुनाव में प्रजातांत्रिक सबसे बडा हथियार का प्रयोग करते हुऐ बिगडे बोल के लोगों को खदेड देना चाहिये और प्रगतिशील सोच वाला कोई प्रतिनिधि चुनें ताकि एक बेहतर भविष्य की उम्मीद तो बने बजाय सत्‍ता की मलाई से फिसलती जुबान के ...................... ? सतीश कुमार चौहान

Friday, October 16, 2015

सत्ता , संगठन और संस्‍‍था से जूझता साहित्यकार ...........

साहित्य अकादमी अवार्ड, सर्वोच्च साहित्य सम्मान है, जो लेखनी के धनी व्यक्ति को भारत सरकार द्वारा शिला पटट के साथ एक लाख रुपये दे कर म्मानित किया जाता हैं ...
साहित्‍य को कविता / कहानी में देखने वाले कुछ लोग सहित शब्द को ताक में रखकर साहित्‍य में अपनी सुविधानुसार विचारवस्‍तु को टटोल रहे हैं, और इसी वजह से साहित्‍य में समाहित सहित, अपने आचरण के ठीक विपरीत विभाजन की बात करता प्रतीत हो रहा हैं ,निश्‍चय ही हम प्रेमी हैं तो ईष्‍यालु भी हैं, जिम्मेदार तो लापरवाह भी. क्षेत्रीय हैं तो राष्ट्रीय भी, य‍‍थायोग अपने बदलते भाव से साहित्य के माध्यम से हमारा मानव मन,समाज-देश एवं संबंधों की जटिलताओं को भी सटीकता से व्यक्त कर सकता हैं ,यह  इतना आसान नहीं होता. साहित्य इस प्रक्रिया को सुगम्य बनाता है. परस्पर विरोधी भावनाओं को उकेरते हुऐ समय एवं स्थान की मर्यादा सुरक्षित कर जटिलताओं को धारावाह रूप से पाठक के समक्ष शिद्दत से पेश करने का काम केवल साहित्य कर सकता हैं. नायक नायिका और प्रकृति के अलावा भी  समाज के प्रति संवेदना,सजगता, समरसता और सर्तकता में ही साहित्‍य की सफलता के बा‍वजूद साहित्य में साहित्‍य के विरोध की गुजांईश भी रहती हैं,

 पिछले दिनो कुलबर्गी, दाभोलकर, पंसारे और अखलाख की हत्या जैसी घटनाओं से साहित्‍य समाज का एकाएक चौंकन्‍ना कर दिया हैं, इससे उस‍की एकाग्रता के सा‍थ तटस्‍थ लेखन पर भी असर पडा है,लिखने पर हत्‍या , समाजसेवा पर हत्‍या , खानपान पर हत्‍या.................... फिर इसके बाद शासन प्रशासन में कोई बैचेनी नही , हाथ मलता पुलिस प्रशासन , राजनीति भी इस पर रोटिया सेंकती, इससे बेबसी तो पनपेगी ही, और इससे साहित्‍यकार को अपने लेखनकर्म की योग्‍यता और समाज के लिऐ इसकी उपयोगिता पर संशय हो रहा है,और सरकारे जिस तरह अपनी सहूलियतो के लिऐ घटनाओं और तथ्‍यो को तोडमोड कर अपने पक्ष में करती दिख रही हैं,ऐसे में विरोध के लिऐ बचता क्‍या हैं  ?, सम्‍मानित होना जितना गर्व का विषय हैं,  उसको लौटना उतना ही पीडादायक होता हैं,जो सम्‍मानित होकर ही महसूस किया जा सकता हैं, साहित्य अकादमी अवार्ड, सर्वोच्च साहित्य सम्मान लौटाने वाले साहित्‍यकार अपनी इसी चितां को सरकार तक पहुचाने का प्रयास कर रहे हैं जैसा कि अप्रैल 1919 में जब जलियांवाला बाग नरसंहार के विरोध में रविन्द्रनाथ टैगोर ने 31 मई 1919 को वायसराय को खत लिख कर ना सिर्फ जलियावालाकांड को दुनिया की सबसे त्रासदीदायक घटना माना बल्कि ब्रिटिश महारानी के दिये गये सम्मान को भी वापस कर दिया था । और जब वह पत्र कोलकत्ता से निकलने वाले स्टेट्समैन ने छापा तो ना सिर्फ भारत में बल्कि दुनियाभर में जलियावाला घटना की तीव्र निंदा भी हुई और टैगोर के फैसले पर दुनियाभर के कलाकार-साहित्यकारों ने अपने अपने तरीके से सलाम किया । तब ब्रिटिश सरकार और दिल्ली में बैठे ब्रिटिश गवर्नमेंट के नुमाइन्दे वायसराय का सिर भी शर्म से झुक गया । और उस वक्त ब्रिटिश सरकार भी यह कहने नही आई कि अगर उसने सर की उपाधि ना दी होती तो कामनवेल्थ देशों में टैगौर को कौन जानता । जैसा कि आज की सरकार और भक्‍तजन इन साहित्‍यकारो के दर्द को महसूस करने के बजाय इनके ही पीछे पड गऐ, 6 अक्टूबर को नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने जब दादरी कांड और पीएम की चुप्पी के विरोध में साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने के एलान के तुरंत बाद इनकी तमाम योग्‍यता को ताक में रखते हुऐ साहित्य अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने एक साहित्‍यकार के बजाय  एक नौकरशाह की तरह प्रेसवार्ता कर कह दिया कि जो नाम और यश उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से मिला, उसे हम कैसे वापस लेंगे ? भकतजनो ने तो अंकगणित में जोड घटना शुरू कर दिया जो खर्च सम्मान देने के बाद अकादमी ने साहित्यकारों के लिये किया । साहिकत्यकार की किताबों का अकादमी ने दसियो भाषाओ में अनुवाद किया उसे कैसे वापस लिया जा सकता है । बस उन मुद्दों पर बात नही हो रही हैं जिस पर लेखक चिन्‍ता व्‍यक्‍त कर रहा हैं, घात प्रतिघात की राजनीति करते हुऐ साहित्यकार जिनका सरोकार सिर्फ चिंतन,लेखन जो सामाजिक,राजनीतिक परिस्तिथियों की दशा की दिशा देने के लिए होता था उनहें  वामपंथी / काग्रेंसी की लकीर खीच कर बाटा जा रहा हैं सवाल किये जा रहे हैं कि ये साहित्‍यकार पूर्ववर्ती सरकारों के दौरान जब अपेक्षाकृत अति उग्र हिंसाएँ हुईं तब सम्मान लौटाने का ख़याल उन्हें क्‍यो नही आया , क्‍या ये सवाल सत्‍ता,संगठन और संस्‍‍था  नहीं आया। इस आचरण को लेखक के दोहरे आचरण की संज्ञा नहीं दी जा सकती ? इससे एतरा‍ज नही पर क्‍या शुरूवात भी न की जाऐ कुछ पहल तो दिखे .... चुप्‍पी कोई हल नही, देश की सरकार अगर सकरात्‍मक पहल करने के बजाय  सत्‍ता अपने संगठन और संस्‍‍था के साथ साहित्‍यकार के प्रति आक्रमक रुख अपनाऐगेी तो निश्‍चय ही बुद्विजीवी वर्ग की ऐसी बेबसी अघोषित आपातकाल का संकेत है ..........                   सतीश कुमार चौहान   9827113539 

Saturday, October 10, 2015

धार्मिक उन्‍माद में लहलहाती सत्‍ता की फसल .....

   

एक गैरराजनैतिक, लगातार जिन्‍दगी से जुझते मध्‍यमवगींय आम आदमी का ये सवाल ,क्‍या सच में खौफनाक बन चुकी आज की राजनीति को कोई भी चुनौती देने की हिम्मत नही जुटा पा रहा. की शिनाख्‍त करते हुऐ मैं भी बेबस सा महसूस कर रहा हैं, देश के बुनियादी सवालो पर सरकार की नीति के अच्‍छे दिन का कुछ इंतजार किया जा सकता हैं  पर सरकार की नियत से पनप रहे अलगाव और अस‍हमति को तो नही रोका जा सकता,पडोसी देश के फिरकापरस्‍तो और देश के नक्‍सलवाद क्‍या कम तकलीफदेह हैं, जो हम बार बार कुछ अतिमहत्‍वकांक्षी उन्‍मादी गिरो‍ह के सांप्रदायिकता की चपेट में आ जाते हैं, अफसोस की इनके पीछे भी सत्‍ता की ही महत्वकाक्षा काम करती हैं ,संप्रदायिकता मनुष्यता के विरोध से ही शुरू होती है। मनुष्य मनुष्य के प्रति विश्वास और प्रेम के स्थान पर अविश्वास और घृणा घोल दी जाती  है । पूर्वाग्रह और अफवाहे इस विरोध और घृणा के लिए खाद  पानी  का  काम  करते  है । सांप्रदायिक उन्माद बढ़ने पर धर्मिक उत्तेजना बर्बर की स्थितियों को जन्म देती है। जहां हम यथार्थ को समग्रता में न देखकर खंड-खंड में देखना शुरू कर देते  है,यहाँ आकर मुनुष्य की चेतना भी खंडित होकर विवेक से नहीं  भ्रम से परिचालित  होती है और अंध हिंसा-प्रतिहिंसा जैसी अविवेकी अमानवीय त्रासदी  जन्म लेती है | जिसके  नाम पर ही मनुष्य समाज को  बांटा  जाता  है कि राजनीति में वोट बैंक के रूप में उसका उपयोग किया जा सके , दंगों को हर बार धर्म और आस्‍‍था के के लबादे में छुपाया जाता हैं, जबकी मूल कारण कुछ अवसरवादीयो की राजनैतिक सत्ता की भूख है, सत्‍ता का दुरूपयोग कर दंगाईयो को संरक्षण देना और दंगो से सत्ता की राह बनाना दो अलग अलग पर भयावह प्रजातांत्रिक प्रयोग हैं, जैसा कि  काग्रेस के संरक्षण में हुऐ 1984 के सिख विरोधी दंगे स्‍वयं काग्रेस के लिऐ  आत्‍मघाती र‍हा और गुजरात में मुस्लिम विरोध के दंगे भा ज पा के लिऐ लाभकर रहे , दरअसल प्रजातंत्र में संख्‍याबल के महत्‍व को भा ज पा ने हिन्‍दुत्‍व से बेहतर तलाशा , पर यदि हम इमानदारी से ढूंढें तो हमें हमारे ही मुल्क में अलपसंख्‍यक और बहुसंख्‍यक लोगो की तुलना में दोनों समुदायों में सच्चे धर्म निरपेक्ष लोगों की भी एक बड़ी संख्या है हमें उन लोगों पर चर्चा करनी चाहिए.उनकी भी चिंता करनी चाहिये, पर जिसतरह  समाज में सत्‍ता के प्रति अविश्‍वास पनप रहा हैं, लोगो को देश की लोकशाही के अलावा कार्यपालिका से भी सकरात्‍मक पहल की उम्‍मीद कम महसूस हो रही हैं, ये देश के लिऐ  दुर्भाग्‍यजनक  ही हैं की प्रजातांत्रिक देश में विभिन्‍न विचार धारा की सरकारो के नौकरशाह भी देश के लिऐ कम सरकार की के लिऐ ज्‍यादा जबाबदेह दिख रहे हैं, सं‍वैधानिक ढांचागत इस खामी से भी इंकार नही किया जा सकता, जब देश के आई एस / आई पी एस अपने  दिन की शुरूवात आठवी / दसवी पास मंत्री विधायक की चौखट पर माथा टेक कर शुरू होती हैं, वो कैसे राजनैतिक लाभ के दंगो / तनाव पर काम करेगें, और इसी का परिणाम हैं कि आज सत्ता पर काबिज होते ही राजनीतिदल  अपने विचारधारा से जुडे लोगो को महत्‍वपूर्ण पदो पर बैठाने के लिऐ तमाम मापदंडो को भी ताक में रख देती हैं, इसमें राज्‍यपाल  से लेकर शिक्षाकर्मी के पद तक ये प्रयोग निर्बाध रूप से चल रहे हैं , जिसका खामियाजा देश के अमनपरस्‍त मेहनत कर शिक्षित मध्‍यवर्ग को भुगतना पड रहा है, आज देश में फिरकापरस्‍त ताकते निरकुंश हो रही हैं , राजनैतिक लाभ के लिऐ दंगे कराना , समाज का धार्मिक स्‍तर पर धुर्वीकरण कर वोट बटोरना आज भी राजनैतिक दलो का चुनावी ह‍थकंडा हैं , जो सवा करोड लोगो के देश को सुपर पावर होने का भ्रम तोडने के लिऐ क्‍या ये काफी नही कि अपने ही बीच के इंसान को उसके घर के फ्रिज में रखे  मटन को गौमांस कह कर हजारो लोगो का एकाएक एकत्रित होना और  द्वारा आधी रात को निर्दयता से कुचल कुचल कर मार दिया जाना और फिर लोकतंत्र के सयानो द्वारा इसकी पैरवी करना , जाने किस लालच और भय ने देश के तमाम  राजनैतिक दलो के साथ साथ सामाजिक संगठनो को खुलकर इसके विरोध में आने से रोके रखा , मानवता से बढकर कर कौन से धर्म के भय में मोमबत्‍ती जलाने वाली जमात इंडियागेट न पहुंच सकी,  हम इस तरह ही मेक इंडिया, स्किल इंडिया और ग्रैट इंडिया बना रहे हैं , येन तेन प्रकारेण सत्‍ता पर काबिज होना ही राजनैतिक दलो का मूलमंत्र हैं तो क्‍या देश के बुद्विजीवी को भी दरबारी बना रहना श्रेयकर लग रहा हैं , तब तो नितिगत सवालो से हम इसी तरह  भटके रहेगें, कया ये अराजकता का प्रयोग नही हैं ?  देश का हर आदमी दहशत के साये में साँस ले ये लोकतंत्र की सफलता हैं ? वो कौन से धर्मउन्‍मादी  लोग हैं जिनके  देश के कानून, शासन, प्रशासन सब शिथिल ही नही बल्कि सुरक्षा कवज बना हुआ हैं ... ? ये एक यक्ष प्रश्‍न ही नही हैं अपितु हमारे गौरवशाली संविधान की विफलता की ओर र्इशारा करता हैं, ..........98271 13539 

Thursday, October 1, 2015

वायदे और विदेश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीतने के तुरंत बाद जिस ताबडतोड ढंग से विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू किया वह आश्‍चर्यजनक हैं, आम चुनावो के दौरान जिस चेहरे ने देश में घूम घूम कर ये बताया की पिछले शासक दलो ने साठ पैसठ सालो में देश को लूट लूट कर कंगाल कर दिया, उसी ने सत्‍ता पर काबिज होते ही उसी कंगाल देश के सरकारी खजाने से महज एक्‍ साल में 20 देशों की राजकीय यात्रा की है। आरटीआई के हवाले से इन महज 16 देशों में भारतीय दूतावासों की ओर से 37.22 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। अभी चार देशों ने जानकारी नहीं हैं, इसमें  फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, चीन, मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की यात्रा में, फ्रांस से राफेल विमान खरीदेने और कनाडा से यूरेनियम पर करार महत्‍वपूर्ण रहा, पर अभी भी ये कहा जा सकता हैं कि भारत में निवेश लिवा लाने की पुरजोर कोशिश ज्‍यादा सफल होती नही दिखती ,‍इधर देश के लोग अब चुनावी खुमारी ने निकल कर सत्‍ता परिवर्तन के नफे नुकसान के अंक गणित में लग गऐ हैं, इन दौरो पर शुरूवाती तौर पर जो तर्क दिये गऐ उससे कही चीन,पाकिस्‍तान और अमेरिका के व्‍यवहार में कोई सुधार होता नही दिखा, अमेरिका पाकिस्‍तान के प्रति अभी भी नरम ही हैं उसके लिऐ भारत अभी भी एक कबिलाई बाजार हैं , पाकिस्‍तान अपनी करतूतो से बाज नही आ रहा हैं और चीन पुवोंत्‍तर राज्‍यो पर कब्‍जे के फिराक में लगा ही हैं, बंगाल को मिले अप्रत्‍यासित महत्‍व ने उसे और बिगडेल बना दिया हैं , नेपाल का तो साफ शब्‍दो  में कह रहा हैं की उसे भारत बडे भाई के रूप में स्‍वीकार नहीं,इसी तरह प्रधानमंत्री कुछेक ऐसे देश के  नेताओ से व्‍यापार और निवेश की बात को सफल कहकर प्रचारित कर रहे हैं, जो जनसंख्‍या और क्षेत्रफल के लिहाज से हमारे एक राज्‍य के भी बराबर नही हैं,  जिनसे सवा सौ करोड देश को लाभ की संभावना बहुत कम हैं,
दरअसल मोदी ने चुनावो में जो चमत्‍कारी बदलाब की बाते कि थी, उससे डेढ साल में तो कुछ कोई बड़ा आर्थिक सुधार नहीं हुआ है, जिससे देश के लोग कुछ बेहतर महसूस कर सकें, देश में रहते हुऐ मोदी जी आज लोकलुभावनी बाते ही कर रहे हैं ,जिसमें योजना कम और मीडियापरस्‍ती ज्यादा नजर आती हैं, 2014 के आम चुनावो के बाद भारत में रहने वाले लोग  प्रचार की धुंध समझ रहे हैं, प्रभावित होना अलग बात हैं पर निवेश कमाने के लिऐ ही होगा , रोजगार के अवसर के लिऐ तो हमारे कुटिर उद्वोग से बे‍हतर क्‍या हो सकता हैं पर अफसोस मोदी जी उस चाइना जैसे देशेा के पालने में झुल रहे है, जिसने पहले ही हमारे घरेलू उद्वोग धधों की कमर तोड दी हैं,एक सर के बदले पांच सर की बात करने वाले मोदी अब आप युद्वपरस्‍त देश से अब आप शांति और संयम का पाठ पढ रहे हो......  
जैसा की अब देश कह रहा हैं, क्‍या सच में मोदी जी अपने चुनावी वादो ईरादो को पिछे छोडने के लिऐ विदेशो तक दोड लगा रहे हैं, 'प्रधानमंत्री जनधन योजना' की घोषणा में 18 करोड़ लोगों के बैंक खाते खोलना सराहनीय है. पर 47 फ़ीसदी खातों में पैसे नहीं हैं, 2 अक्तूबर 'स्वच्छ भारत' अभियान की घोषणा मेंप्रधानमंत्री ने कहा था कि 15 अगस्त 2015 तक देश के सभी सरकारी स्कूलों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग टॉयलेट बन जाएंगे.जो 85 फ़ीसदी स्कूलों में दिख भी रहे हैं पर 70 में पानी की व्‍यवस्‍‍था अभी भी नही हैं 'स्किल इंडिया' की योजना के तहत हर साल 24 लाख युवकों को प्रशिक्षण की बात तो कि गई जबकी देश भर में हर साल 1.2 करोड़ लोगों को नौकरियों की ज़रूरत हैं, सबसे ज्‍यादा किरकिरी मोदी सरकार की सब से बड़ी योजना 'मेक इन इंडिया' हुई, जिसके लिऐ बुनियादी ढांचों के साथ साथ कारखाने और उद्योग के लिए ज़मीन चाहिए.जिसका पेंच अभी भी राज्‍य सभा में फंसा ही हैं, टीम मोदी कैमरे के सामने जी डी पी के आकडो में आर्थिक सुधार के कितने भी दोहे सुनाऐ पर आमजन आज भी वही प्‍याज, दाल, आनाज के लिऐ उसी तरह जूझ रहा हैं,देश के सारे इतिहास को धो पोछकर अपना ब्रांड बनाकर विकसित देशों के साथ निवेश के समझौते कब और कितने सार्थक होगें ये तो समय ही बताऐगा, पर देश में तो आज तक सडक , शिक्षा, पानी, मं‍हगाई, बेरोजगारी, भष्‍टाचारी, भुखमरी जैसे बुनियादी सवालो और आतंकवादी,नक्‍सलवाद, जातिवाद, धार्मिक सामाजिक दंगों जैसे नीतिगत समस्‍यओ में कोई परिवर्तन नही दिख रहा हैं, मोदी जी दुनिया में घूम घूम विश्‍वबाजार के चतुर सयानो से देश की प्रगति व किसानो की आत्‍म हत्‍या रोकने गुर सीख रहे हैं , विश्व के दो नंबर के जनतंत्र के सवा सौ करोड लोग को टाटा,बाटा अजीम प्रेम, जिंदल, अम्बानी और अडानी के आर्थिक विकास और जीडीपी ने सत्ता, राजनीति, कॉरपोरेट और माओवादियों के बीच गठजोड़ बनाया है. इन चारों का गठजोड़ ने देश को जो नुकसान पहुचाया हैं  क्‍या , उसी का विस्तार अब दुनिया के बड़े लूटेरे, विकसित देशों के गुलाम और लुभावने सेल्समन मार्क, सुन्दर, मर्डोक, सत्या नडेला, जॉन चेम्बर्स, पौल जैकब्स के साथ नही हो रहा हैं, अब लड़ाई हथियारों से नहीं, पानी और भाषा से नहीं बल्कि सूचना प्रोद्योगीकी से लड़ी जानी है पर क्‍या फेस बुक से लेकर वाट्स अप पर, बेरोजगारी, किसान समस्या, कुपोषण, आत्महत्या, बलात्कार, साम्प्रदायिकता जैसी विकराल समस्याओ का हल भी मिल जाऐगा ? सत्‍ता की कसौटी आम चुनाव नही नीतिगत फैसले और इसका कार्यरूप हैं , जो जनता मोदी में टटोल रही हैं और मोदी विदेशों में ......

                                                                                     सतीश कुमार चौहान ,      

Wednesday, September 23, 2015

सोशल मीडिया का संशय .........................

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पिछले दिनो कुछ भक्‍तो की लगातार गाली गलौज व धमकी से तंग आकर एन डी टी वी के पत्रकार रविश कुमार ने अपने टिव्‍टर और फेसबुक एकाउण्‍ट ही बंद कर दिया , लगभग इसी समय खबर आती हैं कि जी टी वी के उस पत्रकार को जेड श्रेणी की सुरक्षा मिल जाती हैं जिसे जिंदल ग्रुप से पेड न्‍यूज के लिऐ एक करोड रूपये मांगने के आरोप में जेल की सजा भी मिल चुकी हैं, खबर ये भी हैं कि व्‍‍हाट शाप,‍ टिव्‍टर और फेसबुक एकाउण्‍ट पर सरकार नजर ही नही रखेगी बल्कि नब्‍बे दिनो तक इनके मैसेज मिटाऐ नही जा सकेगें ,,,,,,,,,,
       सोशल मीडिया निश्‍चय ही प्रभावी तो हैं फेसबुक ,ट्विटर आदि साइट्स पर सक्रिय जनमानस समाज के ही विभिन्न तबकों ,विचारधाराओं के वे भडासी लोग हैं  ही तो हैं, जो समाज और उसकी व्‍यवस्‍‍था पर नजर रखने के साथ साथ उसे टटोलने और कुरेदने का भी प्रयास करते हैं , जो प्रिंट मीडिया के दौर में संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे और अपनी योग्‍यता, रूचि के अलावा अपनी देश, समाज के लिऐ कुछ करने की तमाम इच्‍छा एक संपादक की भरोसे सिमट कर रह जाती थी , जिस पर संपादक का सहमत होना जरूरी होता था, अब व‍ही लोग सोशल मीडिया पर लोग अपनी बात धड़ल्ले और बेबाकी से लिख रहे हैं । अख़बारों के पत्रकारों-सम्पादकों और चिंतकों से ज्यादा लोकप्रिय चेहरे सोशल मीडिया पर सुर्खियां और टिप्पणियां बटोर रहे हैं । आज कल तक अनजान रहे चेहरों  के पीछे बड़े-बड़े चिंतक ,लेखक ,पत्रकार दौड़ लगा रहे है ,उसके लिखे की भर्त्सना या प्रशंसा कर रहे हैं कोई बात छुपाई या दबाई नहीं जा सकती है और यही तो सोशल मीडिया की ताकत है । जो स्‍‍थापित मीडिया के लिऐ चुनौति बन कर उभर गई हैं, अब समाचार की विषयवस्‍तु और उसके पीछे के मनोविज्ञान पर नजर रखने के साथ साथ आवश्‍यकतानुसार पीछे के सच को भी जगजाहिर किया जा रहा है  , सोशल मीडिया, जिसमें पाठक और श्रौता को  कम से कम संपाद‍क अथवा मालिक की विचारधारा के सामने नतमस्‍तक होना जरूरी नही होता, आज समाज व मीडिया के धुरंधर भी सोशल मीडिया पर समाज के अनजाने व्यक्तियों की लिखी बातों ,प्रतिक्रियाओं से सोचने को मजबूर हो रहा है, और जब यही तबका समाज और राजनीति की तमाम विसंगतियो पर सीधे प्रहार कर रहा हैं, जिससे  राजनीति  तिलमिला रही हैं, जनता को बेवकूफ और गुलाम समझने वाली सत्‍ता और अपने खत्‍म होते एकाधिकार से प्रजातांत्रिक व्‍यवस्‍‍था अपने सुनियोजित पैतरों में की जाल में अब स्‍‍थापित मीडिया को जन मीडिया से अलग कर धन मीडिया के गले में अपनी विचारधारा का प‍टटा बांध रही हैं , और जन मीडिया पर नजरे तरेर रही हैं , पिछले 30 अगस्‍त साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित एक बुजुर्ग कन्नड़ लेखक माल्‍लेशप्‍पा एम कालबुर्गी की गोली मार कर हत्‍या इसी तरह दा‍भोरक और  पंसारे की हत्‍या , पत्रकार निखिल वागले को धमकी जैसे सैकडो उदाहरण हैं जो इसी मानसिकता की ओर र्इशारा करते हैं, क्‍या इसके पीछे वो  साम्राज्यवादी सत्ता नही हो सकती जो क्रान्ति-पथ पर भय का अंधेरा कायम रखना चाहती हैं......?
समाज के भीतर सत्ताधर्मऔर राजनीति की बुराइयों को उजागर करने वाला सिर्फ लेखक ही होता है। जिसके विचारों से ही आमजनो में अधिकारबोध और सत्‍ता में दायित्‍व बोध जाग्रत होता हैं,और इसलिऐ  जनता को गुलाम समझने वाली सामंती सत्‍ता लेखक हमेशा खटकता रहता हैं , सच्चा लेखक वही लिखता है जो जनता के पक्ष में लिखा जाना चाहिए। दरअसल अन्‍याय के प्रति आत्‍मबल तो सब में होता हैं पर उसे जाग्रत करने का मार्ग एक कलम द्वारा ही प्रशस्‍त किया जाता हैं  जो निश्‍चय ही हमारी गौरवशाली प्रजा‍तांत्रिक व्‍यवस्‍‍थाओ और सामाजिक सांस्‍क्रतिक ताने बाने के लिऐ आत्‍मघाती साबित हो रहा हैं , सिक्‍के के दूसरे पहलू से इन्‍कार नही हैं सोशल मीडिया का इस्तेमाल भड़काऊ ,गैर जिम्मेदार कृत्यों के लिए भी हो रहा हैं अभद्र भाषा का प्रयोग गैर जिम्मेदाराना हरकतें ,जो अक्षम्‍य हैं, इस‍के लिऐ हमें स्‍वयं ही अपने मापदंड तय करने होगें जैसा कि दूसरे क्षेत्रो के लिऐ भी लागू होता हैं, इस से इन्‍कार नही कि प्रजातंत्र के बिगडते स्‍वरूप में सोशल मीडिया रूपी यह एक चमकदार आईना जिसमें हर कोई अपनी सामाजिक छबि को समझ कर सुधार सकता हैं,  इस पर अंकुश कोई सार्थक विकल्‍प नही हैं ,,,,,,,,,,                            

सतीश कुमार चौहान भिलाई  

Wednesday, September 16, 2015

खूनी राष्ट्रवाद, हत्यारा धर्म और साम्प्रदायिक संस्था के बीच का लेखक

खूनी राष्ट्रवाद, हत्यारा धर्म और साम्प्रदायिक संस्था के बीच का लेखक ........
समाज के भीतर सत्ता, धर्म, और राजनीति की बुराइयों को उजागर करने वाला सिर्फ लेखक ही होता है। जिसके विचारों से ही आमजनो में अधिकारबोध और सत्‍ता में दायित्‍व बोध जाग्रत होता हैं,और इसलिऐ  जनता को गुलाम समझने वाली सामंती सत्‍ता लेखक हमेशा खटकता रहता हैं , सच्चा लेखक वही लिखता है जो जनता के पक्ष में लिखा जाना चाहिए। दरअसल अन्‍याय के प्रति आत्‍मबल तो सब में होता हैं पर उसे जाग्रत करने का मार्ग एक कलम द्वारा ही प्रशस्‍त किया जाता हैं, पिछले 30 अगस्‍त साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित एक बुजुर्ग कन्नड़ लेखक माल्‍लेशप्‍पा एम कालबुर्गी की गोली मार कर हत्‍या कर दी गई, क्‍या इसके पीछे वो  साम्राज्यवादी सत्ता नही हो सकती जो क्रान्ति-पथ पर भय का अंधेरा कायम रखना चाहती हैं......?
      अफसोस की यह हत्‍या भी समाज में किसी बैचेनी को जन्‍म न दे सकी, तमाम राजनीतिक खेमे के लिऐ प्रतिबद्व लेखक जमात भी बस औपचारिकता का निर्वाह करते हुऐ अपनी अपनी भारतीय मीडिया की तरह  शीना की हत्या, इंद्राणी की ग्‍लेमरस कथा, राधे मां की मतबाली में लगे हैं ,सामना तो यह भी नही कर पा रहे हैं, और इसी बेबसी ने तो राजनीति को खूनी राष्ट्रवाद, हत्यारा धर्म और साम्प्रदायिक संस्था के रुप में विकसित कर दिया जो अपने मनसूबो की राह में आने वाले हर रोडे को इस तरह कुचल देना जानती हैं, फिर चाहे वो कालबुर्गी हो या दमोरकर,या फिर पूणे फिल्‍म संस्‍थान में चल रही नियुक्ति‍ को लेकर लंबी लडाई हो , मैं यहां अपनी बात खत्‍म करते हूऐ उदय प्रकाश जैसे लेखकों के प्रति सम्‍मान व्‍यक्‍त करना चाहता हू, जिन्‍होने इस लेखक की हत्या के विरोध में साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाकर यह बता दिया कि जो साहित्यिक संस्था अपने ही लेखक के कत्ल पर कोई बयान नहीं दे सकी, न विरोध की आवाज बुलंद कर सकी ,ऐसे अपंग, अपाहिज, कुंठित, संस्‍‍था को झकझोरना निन्‍तात जरूरी हैं ,..................................

            मुक्‍तकंठ परिवार माल्‍लेशप्‍पा एम कालबुर्गी की हत्‍या पर विरोध व्‍यक्‍त करते हुऐ विनम्र श्रद्वाजलि प्रकट करता है.............................सतीश कुमार चौहान 

Tuesday, September 15, 2015

मीडिया से तार तार होती हमारी मर्यादाऐ .......

     मीडिया से तार तार होती हमारी मर्यादाऐ ..............................
इंद्राणी, पीटर, खन्ना, शीना, राहुल के लगातार चल रहे समाचारो से एकाएक सत्‍यक‍‍‍था, मनोहर कहानीयां, रंगीन कहानीया सब याद आ रही हैं, पर अफसोस इन किताबो के दौर में  धर्मयुग, दिनमान पढने वाली वो जमात जो सत्‍यक‍‍‍था किस्‍म्‍ की किताब पढने वालो को डपटती रहती थी वह बेबसी के सा‍थ अब सिमटती जा रही हैं, इंद्राणी मुखर्जी की गिरफ्तारी को जिस तरह से चैनलों और अखबारों में कवरेज मिल रहा है, वो कोई पहली बार नहीं हो रहा। पहले भी इसी तरह के कवरेज को लेकर लंबे लंबे लेख लिखे जा चुके हैं। दरअसल चैनल वाले ये मान चुके हैं कि दर्शको को देश विकास और भष्‍टाचार के समचारो में अंतर ही नही समझ नही आता और न ही नेताओ के वादो इरादो पर भरोसा रहता हैं और वह तमाम मेहनत के बाद टी वी के सामने बैठकर कनफूजियाने के बजाय व‍ह इंद्राणी मुखर्जी की तैरती रंगीन तस्वीरों से आंखें सेंकने और तरह तरह के किस्सों से हाय समाज हाय ज़माना कर बतियाने का मौका छोडना चाहता हैं,पर इन समाचारो का चमत्‍कार देखिऐ की पारिवारिक कल‍ह, व्‍याभिचार और हत्‍या, जिससे लोग समाज से शक्‍ले छुपाते हैं उन पर अब बड़े पैमाने की चटकारेदार कवरेज हो रही हैं, .....,आरोपियो द्वारा केमरे के सामने तन कर इंटरव्यू दिया जा रहा.... हमारे प्रेम के तीसरे महीने में ही वो गर्भवती हो गई लेकिन दूसरे महीने में पता चला कि व‍ह बच्‍चा मेरा नही ,एक दूसरे आशिक का है। इधर दूसरा आशिक बोल रहा हैं कि बच्चा हमारा था लेकिन वो मुझसे प्यार नहीं करती थी, इधर मां बहन सफाई देते हुऐ कैमरे को बता रही हैं कि सौतले पिता की नियत खराब थी इसलिऐ वह 15 साल की उम्र में ही घर से भाग गई , अमुक संस्‍‍थान का शादीशुदा मालिक उस पर लटटू हो, और ये मा‍लकिन हो गई फिर शुरू पांच सितारा जिन्‍दगी, दोनो के बच्‍चे होने तो चाहिये थे भाई बहन पर,  रहते थे पति पत्नि बन कर....कहां हैं इसमें  सघर्ष, बेबसी, हमदर्दी व जज्‍बात, बस ग्‍लेमर ही ग्‍लेमर…? जेल जाते जाते भी बड़े पैमाने पर मीडिया कवरेज का तडका, एक महिला अपराधी हो या व्याभिचारिणी या सती सावित्री यह तय करने का काम कम से कम मीडिया का तो नहीं ही है  कुल सिवाय  बेशर्मी के  ...
पर सवाल .कहां, समाज और कहां समाज और परिवार की मर्यादाऐ ? घर के सदस्य का दर्जा पा चुके टी वी को तो  सत्‍यक‍‍‍था, मनोहर कहानीयां, की तरह  सिरहाने के नीचे या किताबो के बीच छिपाया नही जा सकता, अगर इस दलील पर बच्‍चो की चिन्‍ता छोड दी जाऐ की वे समाचार चैनल देखते ही नही इसलिऐ उन पर तो कोई दुष्‍प्रभाव पडेगा नही, पर घर की उस कामकाजी महिला के मनोविज्ञान को तो समझना ही होगा जो पुरूष के साथ कधें से कधें मिलाकर चलने वाले  जुमले में फंस कर चुल्हे चौके के साथ साथ आर्थिक लड़ाई रोज़ क़तरा-क़त   म भी हो रही है । यह भी एक सच्‍चाई है कि उन्‍हे  अपने घर का ख़र्च चलाने के लिए बिजली के बिल के नाम पर चेहरे की रंगत भी बुझानी पडती हैं, ऐसी लाखो करोडो  इंद्राणी मुखर्जी सड‍को पर दिख जाऐगी जो 24 घण्‍टे की अनवरत चलने वाली घड़ी की तरह काम करती हैं जो मॉं भी है, बहन भी, पत्‍नी भी और सहकर्मी भी । उसे  आराम की इजाज़त ही नही है , सुबह बच्‍चों को स्‍कूल के लिए तैयार करने से लेकर, पति का, घर के बुर्जुगों का और ख़ुद का नाश्‍ता, लंच तैयार करना, चाय आदि देना, सफ़ाई आदि फि़र परिवार की धुरी बनकर उसका पूरा बोझ ढोकर ऑफि़स में भी समय पर पहुंचना, ट्रैफि़क से लेकर , ऑफि़स में महिलाकर्मी तक के  ताने सुनना कितना कष्‍ट दायक लगता है जीवन का सफर उसमें भी जरा सर से पल्‍लू सरका की एकता कपूर की सास जेठानी और तो और पडोसने भी लक्षण ,संगत और रंगत सब पर पानी पी पी कर कोसेगीं,

क्‍या हवलदारी करता मीडिया, सत्‍यम, शिवम और सुन्‍दरम की कसौटी में कही फिट बैठ भी पा रहा हैं, या आत्‍मावलोकन की बात कर अपनी सूचना,जागरूकता और मिशन की परम्‍पंरा के नाम पर कारर्पोरेट और राजनीति की चापलूसी के गर्म तवे से अपनी रोटी सेंक रहा हैं, दुर्भाग्‍यजनक पक्ष तो ये हैं कि कुछ पेशेवर लोगो ने निष्‍ठावन पत्रकारो की योग्‍यता कुछ रुपये की वेतन पर हथिया कर सरकार और समाज के बीच एक ऐसा व्‍याभिचार का रिश्‍ता बना लिया हैं, जिसमें ऐन तेन प्रकारेण् मुनाफा ही मूलमंत्र हैं, और इंद्राणी जैसे सुनियोजित समाचारो को इस तरह तूल देकर देश दुनिया के नाम पर आम जनता को दिग्‍भ्रमित रखने षडयंत्र हैं, जिसकी आड में देश की राजनीति और कारर्पोरेट लाबी अपने हितो के लिऐ सवा सौ करोड के देश के आर्थिक व्‍यव्‍हारिक नुकसान के अलावा गंभीर रूप से सामाजिक मनो‍वैज्ञानिक हीनभावना को बढा रहा हैं ......................  सतीश कुमार चौहान, भिलाई 98271 13539