हमारे आपके आस पास की बाते जो कभी गुदगुदाती तो कभी रूलाती हैं और कभी दिल करता है दे दनादन...

Saturday, September 18, 2010

एक मेहनती व्‍यापारी अपने व्‍यापार का बोझा लिऐ रोज आते जाते एक नौजवान को कई दिनो से पेड के नीचे आराम करते देख रहा था, एक दिन सुसताने के नाम पर वह भी उसी के पास बैठ कर बतियाने लगा, यह जानकर कि नौजवान कुछ काम ही नही करता हैं, वह आदतन उसे समझाने लगा मेहनत ईमानदारी की बाते नौजवान को उबाउ लगी तो उसने टोक दिया की आपकी यह लम्‍बी लम्‍बी बाते आसान तो हैं नही और इनसे मुझे हासिल क्‍या होगा....? व्‍यापारी ने शांति व आराम का जीवन मिलने की बात की तो नौजवान तपाक से बोल पडा . आराम से पेड के नीचे स्‍वस्‍थ हवा में बेफ्रिक पडा हूं, इससे तो अच्‍छा नही होगा,





आज पुरे अधिकार के साथ सब कुछ समाज से नोंच लेना देश में बढती बेबसी और गरीबी का मनोविज्ञान भी ऐसा ही बन रहा हैं जिसके साथ वोट बैंक की गंदी राजनीति मिल कर ऐतिहासिक आधार पर धार्मिक और जातिय से भी ज्‍यादा भयावह रूप से समाज में आर्थिक विषमता की खाई खोद रही हैं, जबकी दूरस्‍थ व काफी अन्‍दरूनी और अभाव में गुम हो रही जिन्‍दगीयो तक न तो सरकार पहुच पा रही हैं न विकास, और न ही किसी को इसकी चिन्‍ता हैं,संसद में बैठने वाले सयानो को ये बात समझ में आ गई हैं की जनप्रतिनीधित्‍व का कीडा शहरी सल्‍म में ही पनप सकता हैं, इस लिऐ अपने इर्दगिर्द्र निकम्‍मो की जमात तैयार रखी जाऐ जिनके हाथ में कही भी कभी भी झण्‍डे/डण्‍डे देकर राजनैतिक ताण्‍डव से भीडतंत्र का शक्ति प्रदर्शन किया जा सके, और यही लोग आज छाती पर गरीबी का मेडल लगाऐ सरकार द्वारा दी जा रही बैसाखी के सहारे देश के मध्‍यम वर्ग पर लगातार बोझ बनते जा रहे हैं, सरकार भी अपने वोट बैक क्‍ै च्‍श्‍मे से देखते हुऐ तमाम बुनियादी समस्‍याओ मसलन सही पानी, सडक, स्‍वास्‍‍थ, शिक्षा और रोजगार के बजाय गरीब बनाने बताने और गिनाने को ज्‍यादा श्रेयकर समझ रही,
पिछले दिनो एक लोकल चैनल की रिर्पोट की अनुसार एक छतीसगढ के पुरे एक कस्‍बे की पुरी आबादी से भी ज्‍यादा वहां गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालो के नाम दर्ज हैं जिनके राशन कार्ड भी बन गऐ हैं और चाउर वाले बाबाजी के सौजन्‍य से रूपयया किलो चावल भी बंट रहा हैं जबकी इस कस्‍बे में राज्‍य के तमाम अन्‍य कस्‍बो की ही तरह कारे, बंगले ,मोटरसायकल और तमाम ऐशो आराम के साधन भी उपलब्‍ध हैं , जाहिर हैं ये खेल कैसा किनका और किसलिऐ चलाया जा रहा हैं, एक दौर गरीबी हटाने का था जिसमें अफसरो और नेताओ मिलकर गरीब को ही हटाना श्रेयकर समझा, आज प्रदेश को खेती, खनिज और मेहनत की सम्‍पन्‍नता के लिऐ पुरे देश में ही नही विश्‍व में भी जाना जाता था, आज वहां का हर आदमी गरीब होने का सबूत लिऐ घुम रहा हैं जनकल्‍याणकारी योजनाओ के बाद भी गरीबी का आकडा इस दुर्भाग्‍यजनक ढंग से क्‍यो बढ रहा हैं......? इस बात की पुरी गुजांइस हैं कि राजतंत्र के लिऐ देश के लिऐ गरीबी व अभाव सदैव एक बडा मुद्रदा रहा है और आगे भी कम से कम प्रजातंत्र के साथ तो बना ही रहेगा,यहां इस बात पर भी चिन्‍ता बनी ही रहती हैं की गरीब कहा किसे जाऐ...,आजादी के छ दशक के बाद भी हम सरकारी अस्‍पताल के इलाज से कतराते हैं, पेडो के नीचे सकूल बदस्‍तूर चल रहे हैं जहा बच्‍चे पढने नही मध्‍यांन भोजन के लिऐ के लिऐ आते हैं, सडक पानी सब सरकारी योजनाऐ अराजकता के गंद से दूषित हैं, राज्‍य सरकार इस बात से मंत्रमुग्‍ध हैं कि वे मुफत में आनाज बिजली पानी शिक्षा बांट कर गरीब बनाने में अव्‍वल हैं, किसी को भी नऐ विकास योजनाओ , कल कारखानो और खेती की उन्‍नत् तकनीक, के विकास में कोई रूचि नही दिखती, और अन्‍तंत असंगठित मध्‍यम / औसत शिक्षित वर्ग के उपर तमाम बोझ डाल दिया जाता है, जो लगातार आर्थिक बोझ तले पिस रहा हैं,......



सतीश कुमार चौहान , भिलाई

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Wednesday, September 15, 2010

वाशबेसिन बाम मेरा शहर

हमारे नऐ घर के प्रवेश उत्‍सव की रंगोली भी नही हटी थी कि विकास प्राधिकरण के लोगो ने न घर के दरवाजे पर ही नाली के नाम पर भारी गउडा खोद दिया,पदस्‍‍थ इन्‍जीनियर से बात की तो उन्‍होने पुरे नियम गिना डाले साथ ही सरकारी मजबूरी भी जाहिर करते हुऐ अन्‍त में एहसान जताते हुऐ पुनं पुरा बनवा भी दिया, फिर तो साहब से नियमित हाय हैलो भी होने लगी,एक दिन साहब कुछ कागज पत्‍तर ले कर आऐ और औपचारिकता के तहत सन्‍तोषस्‍पद कार्यसम्‍पन्‍न के प्रमाण पत्र में दस्‍तखत करने को कहने लगे
हमने साहब के साथ चाय पीते पीते पढना शुरू किया नाली की लम्‍बाई, गहराई, पुलिया की संख्‍या, गुणवत्‍ता सब गोलमाल साफ दिख रहा था, काफी भष्‍ट्राचार की बू आ रही थी,, हम एहसान में दबे कुछ टोका टिप्‍पणी करते हुऐ दस्‍तखत कर ही दिये, यही साहब लगभग सत्रह साल बाद कल शाम होम डेकोर के यहां मिल गऐ, समय के साथ साहब में बडे अफसरी का रूतबा झलक रहा था साहब की सरकारी गाडी मयचालक बाहर खडी थी, बातचीत से पता चला साहब अपने घर के लिऐ वाशबेशिन लेने आऐ हैं, पानी के अलावा ठंडा भी पी चुके हैं पर वाशबेशिन नही जम रहा हैं, ,साईज डिजाईन, रंग, गहराई, ब्राड,दाम और फिटिंग का तरिका, कुल मिलाकर कोई न कोई खामी निकल ही रही हैं] साहब इन्‍टरनेट से भी काफी युनिक कलर व डिजाईन की की जानकारी लेकर आऐ थे, दुकानमालिक खिसिया भी रहा था और खीसनिपोर निपोर कर चापलूसी भी कर रहा था, साहब, सीटी इन्‍जीनियर जो थे दुकान का नौकर भी पडोस की दुकानो से भी कई वाशबेशिन ला लाकर थक गया था साहब निश्‍चय ही खर्च,उपयोगिता सुन्‍दरता और आधुनिकता की गंभीर सोच के साथ दूरद्वष्टि भी रखते थे, पर आखिर कयों इनके ही कार्यकाल में बने

शहर में तमाम खर्च के बाद भी अतिउपयोगी दोनो अण्‍उरब्रिजो में हर मौसम में पानी भरा रहता हैं,एक मात्र ओवर ब्रिज भी शहर के लिऐ नकारा हो गया, पुरे शहर की नालीया जाम होकर सडती रहती हैं, आखिर क्‍यों इस शहर में गढढो में ही सडक दिखती हैं, पोस्‍टरो में चांद सितारो से बाते करते मेरे शहर में बुनियादी आश्‍यकताओ के नाम पर लूट का आर्थिक व्‍याभिचार की शुरूआत भी इन्‍ही के कार्यालय से होती हैं, आखिर क्‍यों सरेआम चल रहा हैं,
आखिर मेरे शहर को वाशबेशिन बनाकर बहते पानी में हाथ तो सब धो रहै हैं पर..................




सतीश कुमार चौहान , भिलाई

Saturday, September 11, 2010

रागदरबारी

हमारे एक मित्र काफी दिनो बाद मिले हाथ मिलाते ही कहने लगे अरे यार लिखते हो की छोड दिये , मैने हसं कर बात टालने की कोशिश की तो उन्‍होने सामने एक रंगीन मल्‍टीकलर आफसेट में मलाईदार विदेशी पेपर की किताब रखते हुऐ कहने लगे इसके लिऐ कुछ लिखो यार , निश्‍चय की किताब अनर्तराष्‍टीय कलेवर की दिख रही थी आवरण पर सुबे के मुखिया की आकर्षक फोटो के साथ कुछ सरकारी जुमले लिखे थे किताब के पहले पन्‍ने को देखते ही मैं चौंक गया ये मित्र महोदय संपादक थे उनके घर के बीबी बच्‍चे सब प्रकाशक, वरिष्‍ठ व प्रंबध संपादक साथ ही कुछ राजनैतिक व व्‍यापारी किस्‍म के दोस्‍त संपादक मण्‍डल में थे , यहां मेरे मित्र ही नही जिन लोगो को मैं जानता था उनकी योग्‍यता से किताब ही लेखन/पठन का कही भी तालमेल तो कतई नही बैठ रहा था हां कुछ लोग सेटिग में जरूर माहिर थे ,इसी तरह किताब के बैनर संबोधन पर छतीसगढ कला, साहित्‍य, जनचेतना की सर्म्पित एक मात्र मासिक पत्रिका लिखा भी आंखो को गड रहा था, जो था सब राज्‍य की सरकार का खुल्‍लम खुल्‍ला स्‍तुतीगान था, दरअसल गठन के बाद इस राज्‍य में एकाएक अखबारो और किताबो की तो बाढ सी आ गई हैं, तमाम विज्ञप्तिबाज किस्‍म के लोग अखबारो/ किताबो के संपादक बैठ गऐ हैं, मंत्रालय में घुस बैठे राजनैतिक किस्‍म के तथाकथित साहित्‍यकारो का यह गुरूमंत्र हैं कि मुख्‍य पेज पर सुबे के राजनैतिक आकाओ की फोटो छापकर इसी तरह अन्तिम पेज पर किसी सरकारी योजना का अच्‍छा विज्ञापन छाप दो, बस पक गऐ बीस पच्‍चीस हजार कुछ कमीशन देनी पडेगी चेक आपके हाथ में , कार्यालीयन खानापूर्ति के लिऐ प्रतिया चाहे दस भी छपे , न आफिस न स्‍टाफ, लगे तो स्‍थानीय निगम प्रशासन जनसम्‍पर्क विभाग को पटा सटा के आफिस व घर के लिऐ कोडी के भाव जमीन लेकर ऐश करो


पुरे राज्‍य में रागदरबारी का स्‍तुतीगान अपने चरम पर हैं, हिन्‍दी के गुरूजी बताते थे कि विद्वान लेखक, साहित्‍यकार और कवि बेचारे अपनी पाण्‍डुलिपी सहेजे हुऐ परलोक सिधार गऐ, जिनके किताबे छपी उनके गहने बर्तन बिक गऐ, पर आज आऐ दिन किताबो का विमोचन राजनेताओ के आतिथ्‍य में हो रहा हैं बीच में कमीशनबाज प्रकाशक से लेकर अफसर तक सक्रिय हैं, इसी प्रक्रिया का एक हास्‍यास्‍पद नमूना हैं कि राज्‍य के कई नेता और अधिकारी भी विभिन्‍न अपने को साहित्‍यकार बताने लगें हैं..........कई पेशेवर साहित्यिक पीठ तो ऐसे काम कर रहे जैसे सरकार के लिऐ साहित्यिकार वोट बैंक बना रहे हो.......

धन्‍य हैं देश का प्रिंट मीडिया...... शेष फिर...

सतीश कुमार चौहान , भिलाई

डाक्‍टर . बैग/झोला छाप

देश की तमाम सरकारी योजनाओ की बात करते हुऐ जिस तरह जुबान गंदी महसूस होती हैं वही हालात अब बुनियादी बातो पर भी होने लगी हैं, गुजरात के सरकारी अस्‍पताल में दो नवजात इन्‍कुबेटर शारीरिक तापमान बनाऐ रखने वाले उपकरण में जलकर राख हो गऐ, हाल में ही चार बच्‍चे सरकारी अस्‍पताल में वैक्‍सीन लगाते ही ठंडे पड गऐ, इन मासूम नादान बच्‍चो के परिवारो के अलावा सब भूल गऐ,


हर बार की तरह फिर पैरा मेडिकल स्‍टाफ को कोस सरकार ही नही हम आप सब  चुप हो गऐ ....ये तो रोज की बात हैं और हम तो बेहतर इलाज ले ही रहे है, बेहतर अर्थात पांच सितारा......

पिछले दिनो हमारे औसत दर्जे के शहर में स्‍वाईन फलू नाम की मीडियाई चिल्‍लपौ मच गई, शहर के एक मीडियापरस्‍त खाटी किस्‍म के पुराने दाउ व राजनैतिक गिरोहबंदी से चल रहे अस्‍पताल में मरीज की भर्ती होने से लेकर इलाज प्रक्रिया को मीडिया द्वारा आवश्‍यक अनावश्‍यक तामझाम के साथ नियमो के खिलाफ मय फोटो दिखाया पढाया जाने लगा ,इलाज से जुडे मरीज को मिल रहे स्‍वास्‍थ लाभ की राम कथा सुनाते रहे और मरीज राम को प्‍यारा हो गया, अब इलाज से हीरो बन रहे डाक्‍टर / अस्‍पताल ही नही पुरी सरकार कटघरे में हैं जो मीडिया पहले डाक्‍टर / अस्‍पताल के चाय समोसे खा पी कर समाचारो को नमकीन बना रही थी वही अब बेचारे मरीजो के आंसू में समाचारो को डुबा डुबाकर पुरे स्‍वास्‍‍थ सेवा में ही कडुवाहट घोल रही हैं, ऐसी बीमारीयो के साथ समस्‍या भी गंभीर ही होती हैं परिणाम दुखद होने की संभावना ज्‍यादा ही रहती हैं, यहां समस्‍या हैं, ढिढोंरा क्‍यों......

दरअसल चिकित्‍सक इलाज को अपनी बिक्री की वस्‍तु बना चुके हैं और फीस को फिरोती, मरीज के प्रति इनकी कोई जबाबदेही नही हैं कितना आश्‍चर्य हैं कि देश के ये व्‍हाईट कालर क्रिमिनल किस्‍म के डाक्‍टरो ने या तो अपने शाही खर्चो को इतना बढा लिया हैं या स्‍वयं के हुनर पर इतना विश्‍वास नही हैं कि मंहगे डायग्‍नोस्टिक व दवाईयो के कमीशन न मिले तो घर का चुल्‍हा भी न जले,घर में थाली लोटा चादर पर ही नही घर में राशन सब्‍जी भी डायग्‍नोस्टिक / दवाई कपंनी के एम.आर. पहुचा रहे हैं फिर भी ये तबका समाज के लिऐ लिऐ कही जबाबदेह नही कभी कोई इनकी करतूत पर सवाल करे तो इन बैग छाप डाक्‍टरो का गिरोह पुरे शहर ही नही देश का भी स्‍वास्‍थ बिगाडने की दादागिरी दिखाता हैं और हम आप बेबस हो जाते हैं और स्‍वंय सरकार लकवाग्रस्‍त हो जाती हैं, बेचारे झोला छाप रात को दो बजे भी दरवाजे की दस्‍तक पर लुंगी पहने झोला लिऐ भारत छाप ब्‍लेड के दम पर ही मजदूर के घर पर ही डिलवरी करा रहे हैं चार दिन में मां काम पर बच्‍चा अकेला साडी से बने झूले में लटका रहता है , फीस नही तो चल बाद में दे देना , कोई कंसल्‍टेशन नही, दस रूपये में पूडिया सूजी दे रहे हैं पैसा नही तो भी चलेगा गरीब पांच सितारा अस्‍पताल/डाक्‍टर दोनो के पास जाने से डरता हैं और अब तो बडे अस्‍पताल/डाक्‍टर भी झोला छाप के दरवाजे पर चक्‍कर लगा रहे हैं यार पेसेंट भेजो कमीशन देगें साफ मतलब देश के सफेद पोश काले कारनामो से जीने को मजबूर क्‍योकी स्‍वयं इनसे कतरा रहे हैं, ये दिन में बीस मरीज देख कर पद्रह को ही, तो झोला सौ मरीज को देखकर नब्‍बे को राहत पहुचा रहा हैं, ईर्ष्‍या तो होगी ही ........और ये झोला छाप वही हैं जो बैग छाप के यहां के इस लिऐ बिना वेतन शटर उठाने से लेकर बन्‍द करने तक क्‍लीनिको के अलावा घरेलू काम भी करते हैं कि उन्‍हें डाक्‍टर बना दिया जाऐगा इन्‍हे इतना भी समझा दिया जाता हैं की दूरस्‍थ क्षेत्रो में किस तरह डाक्‍टर का एजेंट बन कर काम करे, और यही हाल आज नर्सिग होम का हैं जिसको चला रहे हैं झोला छाप, बाहर सतरंगी बोर्डो पर शहर के तमाम विख्‍यात डाक्‍टरो के नाम लिखे रहते हैं जो शहर के लगभग सभी नर्सिग होम के सामने सामूहिक रूप से लटके रहते हैं पर कभी भी कोई मिलता नही हैं मरीज आया तो फोन करो, मिल गऐ तो मरीज और संचालक की किस्‍म्‍त, कुल मिलाकर ये मरीज फंसाओ जाल, इन पढे लिखे डाक्‍टरो के नाम पर तो आता नही, नर्सिग होम वाला फंसा कर लाऐगा बिना किसी खर्च व जबाबदेही के इलाज कर का दावा करेगे ठीक वैसा ही जैसा मेडिकल वही हाल हैं मेडिकल स्‍टोर में बैठ कर मेडिकल की दवाई बिकवाना,

जाने कब यह बीमार व्‍यवस्‍था सुधरेगी........ आगे सरकारी अस्‍पताल और डाक्‍टर.....
                                                                                                           .. सतीश कुमार चौहान , भिलाई

Friday, September 10, 2010

पुलिस .... मजबूती या मजबूरी

पिछले दिनो हमारे एक मित्र का बरामंदे में रखा गैस सिलेण्‍डर चोरी हो गया,स्‍वाभविक था, कि थाने में रिर्पोट लिखाई जाय, मित्र के साथ मैं भी थाने चला गया जहां पहुचते ही कुछ असहज महसूस होने लगा, गलियारेनुमा माहौल में आपस में उलझे चार पांच टेबल जिसके साथ लगी कुर्सीयो पर सरकारी बाबु किस्‍म के तीन वर्दीधारी लोग बैठे, एक आदमी प्रार्थी की शक्‍ल में भी खडा था, दिवार पर महापुरूषो की फोटोमय मकडी के जाल लटकी थी , खिडकी और चौखट पान गुटके से दागदार थी, एक आदमी आदमी बगल में कैमरा और मुंह में गुटका दबाऐ समाज शास्‍त्र की बातें कर रहा था, संभवत किसी समाचार की जुगत भीडा पत्रकार था,जेलनुमा दरवाजे में भी दो लोग झांक रहे थे,


वेलकम स्‍माईल की कोई गुजाईश नही थी, हमने दफतरी अभिवादन की पंरम्‍परा में औपचारिक मुस्‍कान तो बखेरी पर कोई रिस्‍पांस दिखा नही, उनकी बाते और हमारा खडा रहना दोनो ही अपनी अपनी जगह अटपटा महसूस हो रहा था, हमारे मित्र को शाम की ओ. पी. डी. में जाना था इसलिऐ मुंशी साहब को टोक ही दिया, सर एक कम्‍पलेशन लिखानी थी, शायद बात किसी को भी हजम नही हुई माहौल में कुछ कडवाहट सी घुलती प्रतीत हुई, एक ने कुछ उसी अन्‍दाज में पुछा किस बात की ...?. जी..मित्र ने बताया गैस सिलेण्‍डर चोरी हो गया,

वर्दीधारी . चोरी हो गया या कार किट का जुगाड जमा रहे हो…?

मित्र ने कहा नही हम तो पैट्रोल कार में ही ठीक हैं, वर्दीधारी .क्‍या करते हैं आप..? मेन हास्‍पीटल में डाक्‍टर हूं गैस सिलेण्‍डर चोरी हो गया क्‍यो बोल रहे हो….? सीधा सीधा गुम हो गया बोलो

मित्र कुछ चिढते हुऐ ....साहब कोई अगूठी थोडी हैं जो गुम जाऐगी या फिसल जाऐगी..

वर्दीधारी कागज लेकर कार्बन लगाते हुऐ बुदबुदाया गैस एजेंसी को दिखाना हैं चलिऐ अपना नाम बताईऐ ?

डा.रोहित पाल

जाति ?

राजपूत मुंशी जी की कलम एक झटके में रूक गई पाल और राजपूत, दूसरे मंशी से क्‍यो यादव जी, राजपूतो में भी पाल होता हैं….?

यादव जी अपनी कलम अलग रखते हुऐ .. क्‍या कहे अब समझ कंहा आता हैं नाई तो ठाकुर लिखता हैं... बीच में ही कैमरा वाले जनाब कूद पडे यार वो बिहार में एक दिन के लिऐ मुख्‍यमंत्री बना था न, क्‍या नाम था ..... ? अरे बस्‍ती जिले का रहने वाला ....जगदंम्बिका पाल....वह भी तो राजपूत ही लिखता हैं,

आप भी बिहार के ही हैं क्‍या ...?. बैठिये बैठिये

इस बीच कोई डबल स्‍टार पुलिस अफसर की थाने में इंट्री हुई सब तेजी से सावधान की मुद्रा खडे हो गऐ ...... गैस सिलेण्‍डर को भूल, हम अपने परर्स्‍नेल्‍टी ,नाम जाति के प्रति सावधान हो गए थे

                                                                                                     शेष फिर कभी ......
                                                                                                                    सतीश कुमार चौहान भिलाई

Tuesday, September 7, 2010

नेता जी का मजगा

पिछले दिनो सुबह सुबह जब आफिस जाने की जल्‍दबाजी थी तभी पडोस की बुजूर्ग आण्‍टी ने सडक पार चौक के मेडिकल से ब्‍लड प्रेशर की दवाई लाकर देने का आग्रह कर दिया , दवाई जरूरी थी और कोई विकल्‍प भी नही था हम बाईक से निकले तो प्राय खाली रहने वाले चौक पर भी जबरजस्‍त जाम लगा था भारी पुलिस इंतजाम, एक महिला पुलिस अधिकारी एक हाथ में वाकी टाकी दूसरे हा‍थ में मोबाईल लऐ मंद मंद मुस्‍कान के साथ किसी से बतियाते हुऐ सडक के शहनशाह के समान बीच चौक में खडी थी, आस पास कुछ पटिया छाप नेता हाथ में मोगरे की माला लिये खीस निपोरे खडे थे सडक के बीचो बीच एक लम्‍बी पटाखे की लडी बिछी हुई थी जिसके एक सिरे पर एक माचिस बाज तैनात था ढोल मास्टर नशे में टुन्‍न ढोल का शोर मचाऐ हुऐ था, स्‍कूली बसो को भी सडक से किनारे लगा दिया गया था ठूसे पडे बेचारे बच्‍चे भी छटपटा रहे थे, इस बीच में ही फंसी एम्‍बूलेंस की लगातार दम तोडती बैटरी भी उसके सायरन को हिचकियो में बदलती प्रतीत हो रही थी, मेरे जैसे सेकडो लोग, डियूटी जाने वालो को गेट बन्‍द होने व हाजिरी कटने का डर सता रहा था हर तरफ बैचैनी साफ दिख रही थी खडे लोगो की भारी भीड गवाह थी की जाम लम्‍बे समय से हैं सडक पार भी न‍ही करने की भी इजाजत नही थी कोई दुखडा सुनाऐ या आग्रह करे तो अतिउत्‍साही पुलिस के मुसटण्‍डो द्वारा लाठी लहरा दी जाती थी, खैर काफी देर के बाद एक सायरन बजाती गाडी जिप्‍सी गुजरी जिसमें लटके पुलिसवाले हम राहगीरो की ओर लाठी लहराते हुऐ माचिसबाज को ईशारा करते हुऐ गुजर गई फटाके फडफडा लगे, इसी के साथ हम जनता के लिऐ, हम जनता द्वारा चुना गये हम जनता के प्रतिनिधी का तीस चालीस लाल बत्‍तीयो की गाडीयो का काफिला बीच चौराहे पर रूका, फूल मालाऐ उछलने लगी हा हा ही ही हुआ,चौक का निर्जीव ट्रैफिक खम्‍बा भी बेचारा लाल, पीला हरा होता रहा इन सब से बेपरवाह सायरनो का ताण्डव आगे चौक के लिऐ बढ गया सब कुछ मिनटो में निपट गया,ताम पुलिसवाले बिखर झितर गऐ, चौराहे पर रेलमतेल मच गई हमारे पास खडे एक पुलिस अफसर के पास आकर एक नेताजी ने हाथ मिलाते हुऐ कहा यार पद्रह मिनट और पहले आकर चौक ब्‍लाक कर देते तो और अच्‍छा मजमा लग जाता खैर अच्‍छी भीड जुट गई, चलिऐ निपट गऐ ..... आईऐ चाय पीया जाय.....

सतीश कुमार चौहान , भिलाई