Saturday, October 31, 2015
क्या भारत का पाकिस्तासनीकरण हो रहा हैं ...
क्या भारत का पाकिस्तासनीकरण हो रहा हैं ...
पाकिस्तान, दक्षिण एशिया का एक महत्वापूर्ण देश है.भारत का अहम पड़ोसी होने के बावजूद राजनीतिक अस्थिरता और तालिबान के बढ़ते प्रभाव के चलते पाकिस्तान को विफल देश घोषित किया जा चुका है,दरअसल तालिबान एक ऐसी जमात हैं जो धार्मिक कट्रटरता के चलते देश में अमन तरक्कीत और खुशहाली को भी लगातार एक तरफ कर रही हैं अपने धार्मिक ऐजेंडे पर ही काम कर रही हैं, चूकी हम हिन्दू स्ताकनी इसके पडोसी होने के साथ साथ प्रजातांत्रिक दायरे में रहते हुऐ धर्मनिरपेक्ष तानेबाने में बुने हुऐ हैं ,इसलिऐ हमारे गौरव व वैभवशाली विकास का तमाम एशियाई देश नही समूचा विश्व सम्मा न करता हैं,पर आज विश्वै के सबसे बडे हमारे लोकतंत्र में घट रही कुछ घटनाओ से समूचा विश्वश चिन्तिवत हैं , क्या पाकिस्तान का धर्म आधारित मॉडल हमारा आदर्श बन रहा है ? क्यां ,देश की आवाम सामाजिक राजनितिक आर्थिक और धार्मिक धुर्वीकरण का शिकार हो रही हैं, हिन्दुक बाहुल्ये राष्ट्रा में यह चितां मुसलमान के ही लिऐ नही बल्कि अब तो हिन्दुक के माथे पर भी चिन्ता की लकिरे खीच रही हैं पिछले कुछ समय में बेतहाशा बढ़ती असिहुष्णता और प्रयोजित अत्या चार, जिसमें सरकार की भागीदारी अगर न भी हो पर भूमिका तो नैतिक रूप भयावह संकेत देती हैं, कया हमारी भारतीयता पर राष्ट्र बोध भारी पड रहा हैं ? क्या अनेकता में एकता का गौरव गान हम ही भूल कर हम वहीं गलती नहीं कर रहे जो हमारे पडोसी देश पाकिस्तायन की हूकूमत ने की और खामियाजा पुरा मुल्क भुगत रहा हैं, जिसकी बेबसी आज जगजाहिर हैं ,हम पाकिस्तान की तरह बर्बाद न हो ! शायद इन्हीप चिंताओ में आज कलाकार, विचारक ,लेखक वैज्ञानिक और बुद्विजीवी वर्ग सांकेतिक सम्माभन लौटाते हुऐ गुहार कर रहे हैं , लेकिन सद्भाव और एकता की कोई सलाह जिन्हें मंज़ूर नहीं उनका यहाँ क्या काम ? इसलिऐ सरकार न् तो कोई सार्थक पहल कर रही हैं और न ही इन दुखद घटनाओ पर अपना रूख साफ कर रही हैं ये सच हैं कि पाकिस्तान से भारत कोई तुलना हो ही नहीं सकती. पाकिस्तान इस्लामी गणतंत्र देश है जबकि भारत धर्मनिरपेक्ष.और यही धर्मनिरपेक्षता हमें सतत रूप से गौरवशाली और विकासशील बना रही हैं ,और यह भी नकारा नही जा सकता की इसमें हिन्दु ओ के अलावा सिख, मुसलमान और अन्यऔ धर्मो का भी योगदान हैं और भारत की धर्मनिरपेक्षता पर खुद मुस्लिम नेता भी मानते हैं कि मुस्लिमों के लिए भारत से अच्छा देश कोई हो नहीं सकता. पाकिस्ताधन में 1947 में सिख और हिंदुओ की जनसंख्याे 25% -30% से घटकर अब 2% -3% के आसपास होने का अनुमान इसी बात की ओर र्इशारा करता हैं कि पाकिस्तादन भारतीय हिन्दुमओं का अपने विकास में न तो बेहतर ईस्तपमाल कर सका और न में शांति और असिथरता की तस्वी र प्रस्तु त कर सका जिससे समूचे विश्वप में इसके प्रति सकरात्मतक और रचनात्माक विश्वा स कायम हो सके ,और इसी का खामियाजा आज पाकिस्ताून के हालात बयान कर रहे हैं ,
पिछले कुछ दिनो से हमारे देश में भी एक ऐसा परिदृश्य बन रहा हैं या बनाया जा रहा या महसूस किया जा रहा हैं कि हम भी वही गलती कर रहे हैं जो पाकिस्ताीन कर रहा हैं परस्पबर विरोध का जो माहौल बन रहा हैं उसे तुरंत विश्वास में बदलने की जरूरत हैं ,पर कलाकार, विचारक ,लेखक वैज्ञानिक और बुद्विजीवी वर्ग की इसी चिंता को न केवल बडे दुर्भाग्या के साथ बिना किसी ठोस आश्वारसन के खारिज किया जा रहा हैं साथ ही उन्हेक काग्रेसी/ वामपंथी कह कर नकारा भी जा रहा हैं ,पाकिस्तान के अलगाववादी भी ऐसा ही करतें रहे जैसा आज हमारे राष्टवादी संगठन कर रहे हैं अपने आप को सुसंस्कृ त कहते हैं पर विध्वं स और अपशब्दोद के साथ तर्क कुतर्क करेगें, मुल तत्व पर बात नहीं करेंगे बल्कि उससे उल्टाी कोई मुद्दा उठाकर अनावश्य्क आक्रोश और तनाव का माहोल बनाऐ रखेगें , फासीवाद और समाजवाद को एक दुसरे की चाशनी में उबालते रहेगें , उनके आतंक की बात कि जाऐ तो वो कहेंगे कि अरे आप तो इस्ला मी आतंक के समर्थक हैं। आप सरकार की नितिओ का विरोध करने का जिम्माव केवल इस्ला मिक ,काग्रेसी या वामपंथी का ही हैं, देश के निर्माण अमन चैन और गौरव में कलाकार, विचारक ,लेखक वैज्ञानिक और बुद्विजीवी वर्ग का कोई महत्व नही हैं , अगर के लोग ये मान भी ले कि देश के मतदाता ने संघी हिन्दूम राष्ट्र के पक्ष में वोट किया हैं तो देश का अमनपरस्त हिन्दूी क्योत इसका खामियाजा भूगते, इसके लिऐ बहूमत की सरकार हैं, आवश्य क बिल लाके संवैधानिक परिवर्तन कर ले इस तरह सरकार का चुप रहना और जबाबदेह पदो पर बैठे लोगो का मनमानी करना क्याल भारत को पाकिस्तालनी कोलोन बनाने का प्रयोग हैं , क्याै भारत के सवा सौ करोड लोगो का पाकिस्तासनीकरण किया जा सकता हैं क्याा ये संभव हैं ,जबकी ये कटु सच हैं कि हमारे देश की धर्मनिरपेक्षता ही हमारी सफलता और सौन्दसर्य हैं ;;;;;
Friday, October 23, 2015
सत्ता की मलाई में फिसलती जुबान......
स्कूल के दौरान हिन्दी का एक निबंध बार बार याद आता हैं कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता......इसके पीछे हमारे गुरुजनो का यही मनोविज्ञान रहता होगा की हम जनप्रतिनिधियो के आचार विचार रहन सहन के साथ उनकी समाज के प्रति जीवटता ,उत्तर दायित्व, संवेदना और व्यवहारिक बोलचाल को न सिर्फ समझे बल्कि जीवन में इसका अनुष्सरण किया जा सके क्योकी प्रजातात्रिक देश की राजनीति में जनप्रतिनिधियों का बडा महत्व होता हैं और ये देश के सयाने माने जाते हैं ,पर तब बड़ी बेशर्मी महसूस होती है जब ये लगता है कि हमने ही बेशर्म और बदजुबान लोगों को भी चुनकर अपना भाग्य निर्माता बना दिया है। संतोष भी होता है तब जब इस तरह के लोगों को जनता भी उनके ही अंदाज में गरियाते हुए खदेड़ देती है। इन सब बातों से यह तो तय है कि चीजें इस तरह नहीं चलेंगी, नहीं चलनी चाहिए। प्रेस को प्रेस्टियूट बताने वाले केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने विवादित बयान दिया है। हरियाणा में दलित बच्चों को जिंदा जलाकर मारे जाने की वारदात पर उन्होंने कहा है कि अगर कोई कुत्ते पर पत्थर मारता है तो इसमें सरकार की कोई जवाबदेही नहीं बनती है।इस बीच गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने उत्तर भारतीयों पर निशाना साधा है। रिजिजू ने उत्तर भारतीय लोगों को कानून तोड़ने वाला बताया है। रिजिजू के मुताबिक उत्तर भारतीयों को कानून तोड़ने में मजा आता है और ऐसा करना वो अपनी शान समझते हैं। डसी तरह मंच से चाराचोर कहने पर लालू का अमितशाह को बम्हपिशाची और तडीपार कहना, क्या हम इन्हे लोग अपना रोलमाडल मानने को तैयार होगें , भाजपा के वरिष्ठ नेता एव वर्तमान प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी ने एक चुनावी सभा में कांग्रेस को बुढ़िया कह दिया। प्रियंका गांधी ने कांग्रेस की तरफ से सवालिया लहजे में इसका जवाब दिया और पत्रकारों से ही पूछा, क्या मैं बुढ़िया लगती हूं? मोदी रूके नहीं। उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, ठीक है। अगर कांग्रेस वालों को बुढ़िया वाली बात पसंद नहीं है तो मैं बुढ़िया नहीं कहूंगा। यह कहूंगा कि कांग्रेस तो गुड़िया की पार्टी है। अब जरा सोचिए। ये बुढ़िया और गुड़िया की बहस से देश का कौन सा भला होना है? एक परिपक्व राजनेता इस तरह की निरर्थक बात क्यों कर रहा है? अजीब सी नौटंकी चल पड़ी है पूरे देश में।
इसी तरह भाजपाइयों द्वारा कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी के डमी को संस्कारित करने के लिए उन्हें शिशु मंदिर में दाखिले का नाटक किया गया, उसी चौक पर दूसरे दिन कांग्रेसियों ने बीच चौराहे पर राजनीति की पाठशाला खोल दी। इस पाठशाला में ततकालीन भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के डमी को बदजुबान और मंदबुद्धि करार देते हुए न सिर्फ उन्हें राजनीति की पाठशाला से टीसी देकर स्कूल से निकालने का ड्रामा हुआ, बल्कि गडकरी को मानसिक अस्पताल में दाखिला देने के लिए उनकी मां को सलाह भी दी गई इन नेताओ को इस तरह के बयान/ कारनामों से हासिल क्या होता हैं क्यों ये इतने बेबाक, निरकुंश और गैरजिम्मेदार होकर बोलते है, देश की व्यवस्था उनकी बपौती नहीं है और डेमोक्रेटिक सिस्टम में इस तरह की बाते की इजाजत नहीं है। फिर इस तरह के बयान का क्या औचित्य है? क्या सिर्फ एक समुदाय विशेष को इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए, या राजनीति तानाशाही हूकूमत चलाई जाने का प्रयास हैं इस तरह के बयान और बातों को हतोत्साहित किया जाए, किया जाना चाहिए।, आज रैंप्प पर कम से कम कपडे पहनने वाली माडल के बचे कपडे का भी फिसल जाना और नेताओ की जुबान फिसल जाना एक ही तरह कारनामा हैं, जो बेशक मीडिया के लिऐ मसाला तो हैं ही, हम किन लोगो को सवा सौ करोड आबादी के नीतिनिर्धारण के लिऐ देश की सबसे बडी सयानो के जमात संसद में भेज रहे हैं, विदेश से डिग्री लेकर आऐ, चाल चरित्र और चेहरे की बात करने दल से जुड कर हाथ काटने की बात कहने वाले वरूण गांधी, बडे नेता गडकरी जी जो फिल्मी संवाद की तरह कुत्ते, औरंगजेब की औलाद, गधा, सुअर, हरामी जैसे संबोधन अपने प्रतिद्वंद्वी पार्टी के नेता के प्रति व्यक्त करते हैं। एक बददिमाग कांग्रेसी नेता ने तो मर्यादा की सारी सीमां लांघ दी। उसने कहा, भाजपा को चाहिए कि अटल और आडवाणी जैसे लोगों को अरब सागर में डाल दे। उन्हें कौन समझाऐ कि देश उम्र से नहीं अंदाज से चलता है। जबकी इन दो नेताओ ने कभी अपने राजनीतिक विरोधी नेताओं पर अपशब्दों का उपयोग नहीं किया। अटल अलंकारित ढंग से मुद्दे का विरोध करते रहे। उनकी ऐसी विरोधी एवं दमदार बातों की स्वयं जवाहर लाल नेहरू तारीफ करते थे। लाल कृष्ण आडवाणी एवं मुरली मनोहर जोशी विरोध किए जाने वाले विषय पर बहुत ही तर्कसंगत शालीन व सीमित शब्दों में अपनी बात रखते हैं । राजनैतिक लाभ के लिऐ धार्मिक धुव्रीकरण का प्रयोग करने वाले औवेशी, आजमखान, गिरीराज , साध्वी जैसे लोगो को देश समाज दुनिया गर जानती भी हैं तो सिवाय कैंची सी चलती तेजाबी जूबान के कौशल करिश्मे के लिऐ,वर्तमान सदर्भो में सत्ताधारी पार्टी के लिऐ क्या ये समझना जरूरी नही होगा कि एक परिपक्व दल का नुमांइदा या राजनेता इस तरह की निरर्थक बात क्यों कर रहा है ? यह सवाल सिर्फ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व जनसंघ की गलियों से संस्कार पा चुके हिंदुत्ववादी विचारधारा वाले जनसंघ पार्टी के बाद अब तीन दशक की आयु वाली भारतीय जनता पार्टी जो अपने आपको संस्कार संपन्न एवं संस्कारित पार्टी के रूप में महिमामंडित व प्रचारित करने वालो से भी इसलिऐ पुछना जरूरी हो जाता हैं,क्योकी आज यह एक विशाल जनमत के साथ खडी पार्टी हैं, एक बडा जनाधार इसकी देश की दशा दिशा बदलने के लिऐ इसके साथ हैं , यह नीतिगत निर्णयो के लिऐ प्रजातांत्रिक सम्पन्न दल हैं फिर इस तरह कि बदजुबानी क्यो और क्यो मुखिया ने बातो पर अंकुश लगाने में असफल हैं ? क्या ये दलगत राजनीति की आपसी विरोधाभास नही कि जबाबदेह पदाधिकारी निरकुशं और कदाचार की भाषा प्रयोग कर रहे हैं ? क्या अपनी विफलताओ से ध्यान हटाऐ रखने का सुनियोजित प्रयोग ? क्या राजनीति को मंच के सामने हर ताली बजाने वालों की एक भीड़ भेंड़-बकड़ी नजर आती हैं ? क्या मतदाता जनप्रतिनिधियो के बिगडे बोल के प्रति नकारात्मक रुख अपनाते हुऐ इन्हें राजनीति से बाहर का रास्ता दिखाते हुऐ चुनाव में प्रजातांत्रिक सबसे बडा हथियार का प्रयोग करते हुऐ बिगडे बोल के लोगों को खदेड देना चाहिये और प्रगतिशील सोच वाला कोई प्रतिनिधि चुनें ताकि एक बेहतर भविष्य की उम्मीद तो बने बजाय सत्ता की मलाई से फिसलती जुबान के ...................... ?
सतीश कुमार चौहान
Friday, October 16, 2015
सत्ता , संगठन और संस्था से जूझता साहित्यकार ...........
साहित्य अकादमी अवार्ड,
सर्वोच्च साहित्य सम्मान है, जो लेखनी के धनी व्यक्ति को भारत सरकार द्वारा शिला पटट
के साथ एक लाख रुपये दे कर सम्मानित किया जाता हैं ...
साहित्य को कविता / कहानी में देखने वाले कुछ लोग सहित शब्द को ताक में रखकर साहित्य में अपनी
सुविधानुसार विचारवस्तु को टटोल रहे हैं, और इसी वजह से साहित्य में समाहित
सहित, अपने आचरण के ठीक विपरीत विभाजन की बात करता प्रतीत हो रहा हैं ,निश्चय ही
हम प्रेमी हैं तो ईष्यालु भी हैं, जिम्मेदार तो लापरवाह भी. क्षेत्रीय हैं तो राष्ट्रीय भी, यथायोग
अपने बदलते भाव से साहित्य के माध्यम से
हमारा मानव मन,समाज-देश एवं संबंधों
की जटिलताओं को भी सटीकता से व्यक्त कर सकता हैं ,यह इतना आसान नहीं होता. साहित्य इस प्रक्रिया को
सुगम्य बनाता है. परस्पर विरोधी भावनाओं को उकेरते हुऐ समय एवं स्थान की मर्यादा
सुरक्षित कर जटिलताओं को धारावाह रूप से पाठक के समक्ष शिद्दत से पेश करने का काम केवल
साहित्य कर सकता हैं. नायक नायिका और प्रकृति के अलावा भी समाज के प्रति संवेदना,सजगता, समरसता और
सर्तकता में ही साहित्य की सफलता के बावजूद साहित्य में साहित्य के विरोध की
गुजांईश भी रहती हैं,
पिछले दिनो कुलबर्गी, दाभोलकर, पंसारे और अखलाख
की हत्या जैसी घटनाओं से साहित्य समाज का एकाएक चौंकन्ना कर दिया हैं, इससे उसकी
एकाग्रता के साथ तटस्थ लेखन पर भी असर पडा है,लिखने पर हत्या , समाजसेवा पर हत्या
, खानपान पर हत्या.................... फिर इसके बाद शासन प्रशासन में कोई बैचेनी
नही , हाथ मलता पुलिस प्रशासन , राजनीति भी इस पर
रोटिया सेंकती, इससे बेबसी तो पनपेगी ही, और इससे साहित्यकार को अपने लेखनकर्म की
योग्यता और समाज के लिऐ इसकी उपयोगिता पर संशय हो रहा है,और सरकारे जिस तरह अपनी
सहूलियतो के लिऐ घटनाओं और तथ्यो को तोडमोड कर अपने पक्ष में करती दिख रही
हैं,ऐसे में विरोध के लिऐ बचता क्या हैं ?, सम्मानित होना जितना गर्व का विषय हैं, उसको लौटना उतना ही पीडादायक होता हैं,जो सम्मानित
होकर ही महसूस किया जा सकता हैं, साहित्य अकादमी अवार्ड,
सर्वोच्च साहित्य सम्मान लौटाने वाले साहित्यकार अपनी इसी चितां को सरकार
तक पहुचाने का प्रयास कर रहे हैं जैसा कि अप्रैल 1919 में जब जलियांवाला
बाग नरसंहार के विरोध में रविन्द्रनाथ टैगोर ने 31 मई 1919 को वायसराय को खत लिख कर ना सिर्फ
जलियावालाकांड को दुनिया की सबसे त्रासदीदायक घटना माना बल्कि ब्रिटिश महारानी के
दिये गये सम्मान को भी वापस कर दिया था । और जब वह पत्र कोलकत्ता से निकलने वाले
स्टेट्समैन ने छापा तो ना सिर्फ भारत में बल्कि दुनियाभर में जलियावाला घटना की
तीव्र निंदा भी हुई और टैगोर के फैसले पर दुनियाभर के कलाकार-साहित्यकारों ने अपने
अपने तरीके से सलाम किया । तब ब्रिटिश सरकार और दिल्ली में बैठे ब्रिटिश गवर्नमेंट
के नुमाइन्दे वायसराय का सिर भी शर्म से झुक गया । और उस वक्त ब्रिटिश सरकार भी यह
कहने नही आई कि अगर उसने सर की उपाधि ना दी होती तो कामनवेल्थ देशों में टैगौर को
कौन जानता । जैसा कि
आज की सरकार और भक्तजन इन साहित्यकारो के दर्द को महसूस करने के बजाय इनके ही
पीछे पड गऐ, 6 अक्टूबर को नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने जब दादरी कांड और
पीएम की चुप्पी के विरोध में साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने के एलान के तुरंत
बाद इनकी तमाम योग्यता को ताक में रखते हुऐ साहित्य अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने एक साहित्यकार के बजाय एक नौकरशाह की तरह प्रेसवार्ता कर कह दिया कि ‘जो नाम और यश
उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से मिला, उसे हम कैसे वापस लेंगे ? भकतजनो ने तो अंकगणित में जोड घटना
शुरू कर दिया जो खर्च सम्मान देने के बाद अकादमी ने
साहित्यकारों के लिये किया । साहिकत्यकार की किताबों का अकादमी ने दसियो भाषाओ में
अनुवाद किया उसे कैसे वापस लिया जा सकता है । बस उन मुद्दों पर
बात नही हो रही हैं जिस पर लेखक चिन्ता व्यक्त कर रहा हैं, घात प्रतिघात की
राजनीति करते हुऐ साहित्यकार जिनका सरोकार सिर्फ चिंतन,लेखन जो
सामाजिक,राजनीतिक
परिस्तिथियों की दशा की दिशा देने के लिए होता था उनहें वामपंथी / काग्रेंसी की लकीर खीच कर बाटा जा रहा
हैं सवाल किये जा रहे हैं कि ये साहित्यकार पूर्ववर्ती सरकारों के दौरान जब अपेक्षाकृत अति उग्र हिंसाएँ
हुईं तब सम्मान लौटाने का ख़याल उन्हें क्यो नही आया , क्या ये सवाल सत्ता,संगठन और संस्था नहीं आया। इस
आचरण को लेखक के दोहरे आचरण की संज्ञा नहीं दी जा सकती ? इससे एतराज नही पर क्या शुरूवात भी न की जाऐ ? कुछ पहल तो
दिखे .... चुप्पी कोई हल नही, देश की सरकार अगर सकरात्मक पहल करने के बजाय सत्ता अपने संगठन और संस्था के साथ साहित्यकार
के प्रति आक्रमक रुख अपनाऐगेी तो निश्चय ही बुद्विजीवी वर्ग की ऐसी बेबसी अघोषित
आपातकाल का संकेत है .......... सतीश कुमार चौहान 9827113539
Saturday, October 10, 2015
धार्मिक उन्माद में लहलहाती सत्ता की फसल .....
एक गैरराजनैतिक, लगातार जिन्दगी से
जुझते मध्यमवगींय आम आदमी का ये सवाल ,क्या सच में खौफनाक बन चुकी आज की राजनीति
को कोई भी चुनौती देने की हिम्मत नही जुटा पा रहा. की शिनाख्त करते हुऐ मैं भी
बेबस सा महसूस कर रहा हैं, देश के बुनियादी सवालो पर सरकार की नीति के अच्छे दिन
का कुछ इंतजार किया जा सकता हैं पर सरकार
की नियत से पनप रहे अलगाव और असहमति को तो नही रोका जा सकता,पडोसी देश के
फिरकापरस्तो और देश के नक्सलवाद क्या कम तकलीफदेह हैं, जो हम बार बार कुछ
अतिमहत्वकांक्षी उन्मादी गिरोह के सांप्रदायिकता
की चपेट में आ जाते हैं, अफसोस की इनके पीछे भी सत्ता की ही
महत्वकाक्षा काम करती हैं ,संप्रदायिकता
मनुष्यता के विरोध से ही शुरू होती है। मनुष्य मनुष्य के प्रति विश्वास और प्रेम
के स्थान पर अविश्वास और घृणा घोल दी जाती है । पूर्वाग्रह और
अफवाहे इस विरोध और घृणा के लिए खाद पानी का काम करते है । सांप्रदायिक उन्माद
बढ़ने पर धर्मिक उत्तेजना बर्बर की स्थितियों को जन्म देती है। जहां हम यथार्थ को
समग्रता में न देखकर खंड-खंड में देखना शुरू कर देते है,यहाँ आकर मुनुष्य की
चेतना भी खंडित होकर विवेक से नहीं भ्रम से परिचालित होती है और अंध
हिंसा-प्रतिहिंसा जैसी अविवेकी अमानवीय त्रासदी जन्म लेती है | जिसके नाम पर ही मनुष्य समाज को बांटा जाता है कि राजनीति में वोट
बैंक के रूप में उसका उपयोग किया जा सके , दंगों को हर बार धर्म और आस्था के के लबादे में छुपाया जाता हैं,
जबकी मूल कारण कुछ अवसरवादीयो की राजनैतिक सत्ता की भूख है, सत्ता का
दुरूपयोग कर दंगाईयो को संरक्षण देना और दंगो से सत्ता की राह बनाना दो अलग अलग पर
भयावह प्रजातांत्रिक प्रयोग हैं, जैसा कि काग्रेस के संरक्षण में हुऐ 1984 के सिख विरोधी
दंगे स्वयं काग्रेस के लिऐ आत्मघाती रहा
और गुजरात में मुस्लिम विरोध के दंगे भा ज पा के लिऐ लाभकर रहे , दरअसल प्रजातंत्र
में संख्याबल के महत्व को भा ज पा ने हिन्दुत्व से बेहतर तलाशा , पर यदि
हम इमानदारी से ढूंढें तो हमें हमारे ही मुल्क में अलपसंख्यक और बहुसंख्यक लोगो
की तुलना में दोनों समुदायों में सच्चे धर्म निरपेक्ष लोगों की भी एक बड़ी संख्या
है हमें उन लोगों पर चर्चा करनी चाहिए.उनकी भी चिंता करनी चाहिये, पर जिसतरह समाज में सत्ता के प्रति अविश्वास पनप रहा
हैं, लोगो को देश की लोकशाही के अलावा कार्यपालिका से भी सकरात्मक पहल की उम्मीद
कम महसूस हो रही हैं, ये देश के लिऐ दुर्भाग्यजनक ही हैं की प्रजातांत्रिक देश में विभिन्न विचार
धारा की सरकारो के नौकरशाह भी देश के लिऐ कम सरकार की के लिऐ ज्यादा जबाबदेह दिख
रहे हैं, संवैधानिक ढांचागत इस खामी से भी इंकार नही किया जा सकता, जब देश के आई
एस / आई पी एस अपने दिन की शुरूवात आठवी /
दसवी पास मंत्री विधायक की चौखट पर माथा टेक कर शुरू होती हैं, वो कैसे राजनैतिक
लाभ के दंगो / तनाव पर काम करेगें, और इसी का परिणाम हैं कि आज सत्ता पर काबिज
होते ही राजनीतिदल अपने विचारधारा से जुडे
लोगो को महत्वपूर्ण पदो पर बैठाने के लिऐ तमाम मापदंडो को भी ताक में रख देती
हैं, इसमें राज्यपाल से लेकर शिक्षाकर्मी
के पद तक ये प्रयोग निर्बाध रूप से चल रहे हैं , जिसका खामियाजा देश के अमनपरस्त मेहनत
कर शिक्षित मध्यवर्ग को भुगतना पड रहा है, आज देश में फिरकापरस्त ताकते निरकुंश
हो रही हैं , राजनैतिक लाभ के लिऐ दंगे कराना , समाज का धार्मिक स्तर पर
धुर्वीकरण कर वोट बटोरना आज भी राजनैतिक दलो का चुनावी हथकंडा हैं , जो सवा करोड
लोगो के देश को सुपर पावर होने का भ्रम तोडने के लिऐ क्या ये काफी नही कि अपने ही
बीच के इंसान को उसके घर के फ्रिज में रखे
मटन को गौमांस कह कर हजारो लोगो का एकाएक एकत्रित होना और द्वारा आधी रात को निर्दयता से कुचल कुचल कर मार
दिया जाना और फिर लोकतंत्र के सयानो द्वारा इसकी पैरवी करना , जाने किस लालच और भय
ने देश के तमाम राजनैतिक दलो के साथ साथ
सामाजिक संगठनो को खुलकर इसके विरोध में आने से रोके रखा , मानवता से बढकर कर कौन
से धर्म के भय में मोमबत्ती जलाने वाली जमात इंडियागेट न पहुंच सकी, हम इस तरह ही मेक इंडिया, स्किल इंडिया और ग्रैट
इंडिया बना रहे हैं , येन तेन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होना ही राजनैतिक दलो का
मूलमंत्र हैं तो क्या देश के बुद्विजीवी को भी दरबारी बना रहना श्रेयकर लग रहा
हैं , तब तो नितिगत सवालो से हम इसी तरह भटके
रहेगें, कया ये अराजकता का प्रयोग नही हैं ? देश का हर आदमी दहशत के साये में साँस ले ये लोकतंत्र की
सफलता हैं ? वो कौन से धर्मउन्मादी लोग हैं जिनके
देश के कानून, शासन, प्रशासन सब शिथिल ही नही बल्कि सुरक्षा कवज बना हुआ
हैं ... ? ये एक यक्ष प्रश्न ही नही हैं अपितु हमारे गौरवशाली संविधान की
विफलता की ओर र्इशारा करता हैं, ..........98271 13539
Thursday, October 1, 2015
वायदे और विदेश
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीतने के तुरंत बाद जिस ताबडतोड ढंग से विदेश यात्राओं का
सिलसिला शुरू किया वह आश्चर्यजनक हैं, आम चुनावो के दौरान जिस चेहरे ने देश में
घूम घूम कर ये बताया की पिछले शासक दलो ने साठ पैसठ सालो में देश को लूट लूट कर
कंगाल कर दिया, उसी ने सत्ता पर काबिज होते ही उसी कंगाल देश के सरकारी खजाने से
महज एक् साल में 20 देशों की राजकीय यात्रा
की है। आरटीआई के हवाले से इन महज 16 देशों में भारतीय दूतावासों की ओर से 37.22
करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। अभी चार देशों ने जानकारी नहीं हैं,
इसमें फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, चीन, मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की
यात्रा में, फ्रांस से राफेल विमान खरीदेने और कनाडा से यूरेनियम पर करार महत्वपूर्ण
रहा, पर अभी भी ये कहा जा सकता हैं कि भारत में निवेश लिवा लाने की पुरजोर कोशिश
ज्यादा सफल होती नही दिखती ,इधर देश के लोग अब चुनावी खुमारी ने निकल कर सत्ता परिवर्तन के नफे
नुकसान के अंक गणित में लग गऐ हैं, इन दौरो पर शुरूवाती तौर पर जो तर्क दिये गऐ
उससे कही चीन,पाकिस्तान और अमेरिका के व्यवहार में कोई सुधार होता नही दिखा,
अमेरिका पाकिस्तान के प्रति अभी भी नरम ही हैं उसके लिऐ भारत अभी भी एक कबिलाई
बाजार हैं , पाकिस्तान अपनी करतूतो से बाज नही आ रहा हैं और चीन पुवोंत्तर राज्यो
पर कब्जे के फिराक में लगा ही हैं, बंगाल को मिले अप्रत्यासित महत्व ने उसे और
बिगडेल बना दिया हैं , नेपाल का तो साफ शब्दो में कह रहा हैं की उसे भारत बडे भाई के रूप में
स्वीकार नहीं,इसी तरह प्रधानमंत्री कुछेक ऐसे देश के नेताओ से व्यापार और निवेश की बात को सफल कहकर
प्रचारित कर रहे हैं, जो जनसंख्या और क्षेत्रफल के लिहाज से हमारे एक राज्य के
भी बराबर नही हैं, जिनसे सवा सौ करोड देश
को लाभ की संभावना बहुत कम हैं,
दरअसल
मोदी ने चुनावो में जो चमत्कारी बदलाब की बाते कि थी, उससे डेढ साल में तो कुछ कोई बड़ा आर्थिक सुधार नहीं हुआ है, जिससे देश के
लोग कुछ बेहतर महसूस कर सकें, देश में रहते हुऐ मोदी जी आज लोकलुभावनी बाते ही कर
रहे हैं ,जिसमें योजना कम और मीडियापरस्ती ज्यादा नजर आती हैं, 2014 के आम चुनावो
के बाद भारत में रहने वाले लोग प्रचार की धुंध समझ रहे हैं, प्रभावित होना अलग
बात हैं पर निवेश कमाने के लिऐ ही होगा , रोजगार के अवसर के लिऐ तो हमारे कुटिर
उद्वोग से बेहतर क्या हो सकता हैं पर अफसोस मोदी जी उस चाइना जैसे देशेा के
पालने में झुल रहे है, जिसने पहले ही हमारे घरेलू उद्वोग धधों की कमर तोड दी हैं,एक
सर के बदले पांच सर की बात करने वाले मोदी अब आप युद्वपरस्त देश से अब आप शांति
और संयम का पाठ पढ रहे हो......
जैसा की अब देश कह रहा
हैं, क्या सच
में मोदी जी अपने चुनावी वादो ईरादो को पिछे छोडने के लिऐ विदेशो तक दोड लगा रहे
हैं, 'प्रधानमंत्री जनधन
योजना' की घोषणा में 18 करोड़
लोगों के बैंक खाते खोलना सराहनीय है. पर 47 फ़ीसदी खातों
में पैसे नहीं हैं, 2 अक्तूबर 'स्वच्छ
भारत' अभियान की घोषणा मेंप्रधानमंत्री ने कहा था कि 15
अगस्त 2015 तक देश के सभी सरकारी स्कूलों में
लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग टॉयलेट बन जाएंगे.जो 85 फ़ीसदी स्कूलों में दिख
भी रहे हैं पर 70 में पानी की व्यवस्था अभी भी नही हैं 'स्किल इंडिया' की योजना के तहत हर साल 24
लाख युवकों को प्रशिक्षण की बात तो कि गई जबकी देश भर में हर साल 1.2
करोड़ लोगों को नौकरियों की ज़रूरत हैं, सबसे ज्यादा किरकिरी मोदी सरकार
की सब से बड़ी योजना 'मेक इन इंडिया' हुई, जिसके लिऐ बुनियादी ढांचों के साथ साथ कारखाने और उद्योग के लिए
ज़मीन चाहिए.जिसका पेंच अभी भी राज्य सभा में फंसा ही हैं, टीम मोदी कैमरे के
सामने जी डी पी के आकडो में आर्थिक सुधार के कितने भी दोहे
सुनाऐ पर आमजन आज भी वही प्याज, दाल, आनाज के लिऐ उसी तरह जूझ रहा हैं,देश के सारे इतिहास को धो पोछकर अपना ब्रांड बनाकर विकसित
देशों के साथ निवेश के समझौते कब और कितने सार्थक होगें ये तो समय ही बताऐगा, पर
देश में तो आज तक सडक , शिक्षा, पानी, मंहगाई, बेरोजगारी, भष्टाचारी, भुखमरी
जैसे बुनियादी सवालो और आतंकवादी,नक्सलवाद, जातिवाद, धार्मिक सामाजिक दंगों जैसे
नीतिगत समस्यओ में कोई परिवर्तन नही दिख रहा हैं, मोदी जी दुनिया में घूम घूम विश्वबाजार
के चतुर सयानो से देश की प्रगति व किसानो की आत्म हत्या रोकने गुर सीख रहे हैं ,
विश्व के दो नंबर के जनतंत्र के सवा
सौ करोड लोग को टाटा,बाटा अजीम प्रेम,
जिंदल, अम्बानी और अडानी के आर्थिक विकास और जीडीपी ने सत्ता, राजनीति,
कॉरपोरेट और माओवादियों के बीच गठजोड़ बनाया है. इन चारों का गठजोड़ ने
देश को जो नुकसान पहुचाया हैं क्या , उसी
का विस्तार अब दुनिया के बड़े लूटेरे, विकसित
देशों के गुलाम और लुभावने सेल्समन मार्क, सुन्दर,
मर्डोक, सत्या नडेला, जॉन
चेम्बर्स, पौल जैकब्स के साथ नही हो रहा हैं, अब लड़ाई
हथियारों से नहीं, पानी और भाषा से नहीं बल्कि सूचना
प्रोद्योगीकी से लड़ी जानी है पर क्या फेस बुक से लेकर वाट्स अप पर, बेरोजगारी, किसान समस्या, कुपोषण,
आत्महत्या, बलात्कार, साम्प्रदायिकता
जैसी विकराल समस्याओ का हल भी मिल जाऐगा ? सत्ता की कसौटी
आम चुनाव नही नीतिगत फैसले और इसका कार्यरूप हैं , जो जनता मोदी में टटोल रही हैं
और मोदी विदेशों में ......
सतीश कुमार चौहान ,
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