गर्व और ग्लानि की आधार भूमि पर हर आयोजन की
अपनी व्यवस्था और सीमाऐ होती है, जो उसके उत्साह, उल्लास और सफलता के लिऐ
सुनिश्चत की जाती हैं, रायपुर में आयोजित साहित्य महोत्सव कार्यक्रम से निश्चय
ही प्रदेश की आबोहवा में रचनात्मक महक तो फैली ही हैं, इसके लिऐ आयोजक मंडल धन्यवाद
का पात्र हैं, साहित्य को लेकर इस मनोविज्ञान को आज के संदर्भ में कतई नकारा नही जा
सकता की साहित्यकार को पुछा जाऐ तो अकड जाते हैं न पुछा जाऐ तो बिगड जाते हैं, लेखकों को बुलाने या नहीं बुलाने और बुलाने
पर जाने या नहीं जाने की पीछे बहुत सारे तर्क हो सकते हैं, मैं यकीनन कह सकता हूं कि पारस्परिक संबंधो
की गुजाइंश के साथ व्यक्तिगत और संगठन के रूप में किसे बुलाया जाऐ किसे न बुलाया
जाय का निर्णय कतर्ड आयोजक के मौलिक अधिकार नही हो सकता जब आयोजन सरकारी खजाने से हो, कयोकी यह पैसा हर एक नागरिक का हैं, किसने
किस को बुलाया और कौन गया नहीं गया, किस आधार आना जाना हुआ कितना राजनैतिक और आर्थिक तडका लगा, ये नैतिक सवाल हैं जो कभी भी
रणनिति का रूप ले सकता हैं, जानेवाले को क्या और किस तर्क से मिला, योग्यता से कितना तालमेल था, ये पता
हो न हो पर आयोजक को इतना सतर्क होना चाहिये कि बहिष्कार करने वाला नीतिवान जरूर बन जाता हैं , व्यक्तिगत रूप से मुझे या शासन द्वारा पंजीकत मुक्तकंठ
साहित्य समिति जो विगत तीन दशक से अंचल में सतत रूप से साहित्य का रस घोल रही
हैं जिसके सदस्यो के बिना दुर्ग भिलाई का तो कोई साहित्यिक आयोजन सफल हो ही नही
सकता को भी नहीं बुलाया गया
था प्रदेश के गांव देहात की तमाम ऐसे
साहित्यकार अथवा संस्थाओ को नही बुलाया गया जो अपनी अभिरुचि से बहुच गऐ उनके
साथ भी जो सौतेला व्यवहार हुआ वह दुखद हैं, खैर न हम गये न ही
हमें न बुलाये जाने का कोई अफसोस है और न ही उसमें शामिल न होने से कुछ
हासिल होने से रह जाने का ही कोई दुख है। माह भर पहले रायपुर से दिल्ली तक की सडको पर
लगे बडे बडे होर्डिग देखकर चैनलो के लोक रंग में डुबे विज्ञापनो का आकर्षण जरूर था
पर शहर के चंद महत्वाकांक्षी लोगो कि संस्कृति विभाग , मंत्रालय तक की इस कार्यक्रम के लिऐ
दोड भाग और जुगत देखकर अपने नैतिक मनोविज्ञान का तालमेंल ही गडबडाता महसूस हुआ,
कुछ लोग तो आमंत्रण को तंमगा बनाकर गले में लटकाऐ घुम रहे थे,
कई बार लेखक समाज का
व्यवहार महापाखंडी गिरोह जैसा महसूस होता है परस्पर दो गिरोह में स्वभाविक विरोध
भी होता ही हैं, जिस आंमत्रण मिल गया उसको अब चिन्ता ये सताती हैं कि अगर दो चार
आपसी लोगो की और मिल गया तो अपना महत्व कम हो जाऐगा,जिनके पास भोजन से रसरंजन तक
का इंतज़ाम है वे लेखकीय स्वतंत्रता की बात करते हैं, लेकिन मौक़ा मिलते ही दूसरे
की स्वतंत्रता को लील लेने के लिए तत्पर रहते हैं। और योग्यता की कसौटी बन कर
भाषण देने लगते है , कार्यक्रम की परिकल्पना किसी की भी हो पर शहर से बाहर अगर
आयोजन हैं तो कोई नून तेल का व्यापारी तो जाऐगा नही, जाऐगा तो साहित्यकार ही,
कार्यक्रम में जितनी कुर्सीया नही लगी उतनी तो सडको पर होर्ड्रिग लगा रखी थी, अगर
मंशा राज्य के नेताओ और अफसरो के घर वालीयो के लिऐ पिकनिक का इंतजाम करने की थी
तो मुक्तांगन में कुछ साहित्यकारो के पुतले भी लगवा कर काम चलवा जा सकता हैं,
कौन और कितने थे वहां सुनने वाले वाले, हर कोई तो फोटो सेशन में लगा था, पहले ही
दिन मंगेश डबराल की बात पर जो साहित्यिक बाउंसरो ने जो जुबानी बयानबाजी शुरू हुई
उससे ही कार्यक्रम की गंभीरता से बू आने लगी थी, दरअसल मेरे व्यक्तीगत तौर यह
महसूस करता हू कि ऐसे आयोजन जिस जमात के लिऐ जरूरी हैं उसी जमात को सुनियोजित रूप
से दूर रख का रायपुर साहित्य महोत्सव को गुड गोबर किया गया, अगर राज्य में
लगातार खून खराबा करती नक्सली समस्या, गर्भाश्य कांड, नेत्रफोडवा कांड और
नसबंदी कांड से इस कार्यक्रम का कोई समन्वय नही भी हैं पर छतीसगढ के बडे
साहित्यिक जमात की इस विषय पर तटस्तता क्या आशचर्यजनक नही हैं, कहते हैं व्यवस्था
के खिलाफ लिखना बोलना हमारा काम नही हैं, मेरी चिन्ता तब और भी गंभीर हो जाती हैं
कि धन-मीडिया के विरुद्ध
क्या कोई जनमीडिया तैयार हो सकेगा,
लोगो के
खून पसीने के करोडो रूपये कुछ अफसरो,प्रकाशको और मीडियापरस्तो पर उड गऐ पर साहित्य
को मिला क्या विवाद के अलावा , विभिन्न विचारधारा के नाम का साहित्यिक पताका लेकर चलने वाले भी आज आयोजन में आने न आने को लेकर सरफुटव्वल
कर रहे , जो अवसरवादी चाटुकार कोरे कागज थे उन पर गरीब का प्रतिक महात्मा गांधी
चिपक को गया और मालामाल को गये, संतन को तो सीकरी से ही
काम है, आयोजन होना जरूरी हैं कैसा हुआ, कैसे सफल हो इसके प्रयोग होते रहने
चाहिये, ज्यादा जरूरी हैं कि चापलूसो और अवसरवादियो से सतर्क रखा जाऐ, गांव देहात
की कवि मंडलीयो को अवसर दिया जाऐ ......
सतीश
कुमार चौहान .
No comments:
Post a Comment