Sunday, November 15, 2015
बी जे पी की मुसीबत, राज्या सभा
आत्ममुग्ध मोदी जी को बिहार चुनाव परिणाम के बाद विदेश जाने से पहले देश की जनता के सामने आकर बिहार के चुनाव परिणामो को सर आंखो पर लेते हुऐ बिहार की जनता को धन्यावाद देना चाहिये था की उन्होखने समय रहते तमाम लालच और भय को दरकिनार कर अपने विवेक से मोदी जी को यथा र्थ के धरातल पर ला दिया, इससे मोदी की मीडियाई छबि भी बरकरार रहती और आडवानी, मुरली मनोहर जोशी , अरुण शौरी, शत्रुघन सिन्हाी, यशवंत सिन्हा और आदी आदी के मुहं भी न खुलते, साथ ही कम से कम पार्टी के अंदर की बाते सार्वजरनिक भी न होती, साथ ही नमस्तेी लंदन के दौरे में भी विदेशी मीडिया रायता नही फैलाती, पिछले साल लोकसभा चुनाव के नतीजों के तत्काल बाद राहुल गांधी ने भी तो मीडिया के सामने आकर हार की जिम्मेदार अपने ऊपर ली ही थी. यह और बात है कि पूरी पार्टी उनके दामन को बचाने में लगी रही. मोदी जी को भी ये समझना ही होगा मई 2014 में बिहार के लोगों ने नरेंद्र मोदी के एक सुर मोदी मोदी मोदी किया ही था । जिस बिहार ने मई 2014 में जातिय बंधन तोड़ उन्हें जिताया था वे यदि इतनी जल्दीद वापिस जात के समीकरण में कैसे लौट गऐ , कैसी नाराजगी हैं, भाजपा के लोग आत्ममंथन किये बिना आज मोदी अमित शाह को बचाने के लिऐ इतने उतावले हो गऐ हैं कि वे बिहार की जनादेश का सम्माअन करने के बजाय बिहार के लोगो को ही गुमराह व जातिवादी कह रहे हैं , मतलब लोकसभा के मीठे अंगूर एकाएक खटटै हो गऐ हैं, केद्र में काबिज भाजपा को भी ये सोचना ही चाहिये कि 18 महीने जैसे राज चला, प्राथमिकताएं जैसी रहीं, जैसे चेहरे रहे, जैसे राजनैतिक तेवर रहे, बुनियादी जरूरतो का जो हाल हुआ, वह आम मतदाता को प्रभावित न कर सका, दरअसल भारत को गुजरात समझना एक बडी भूल हैं, गुजरात में जिस अफसरशाही, सिस्टम के बूते 12 साल राज चला, वैसा भारत के पैमाने पर संभव नहीं है। भारत न बौनों से चल सकता है और न अफसरों से। उसके लिए जमीनी-लोकप्रिय करिश्माेई नेताओं की भीड़ और सियासी कौशल चाहिए। उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल और पूरा भारत को काबू में रखने के लिऐ असली दमदार व जनता-पार्टी-कार्यकर्ताओं की नब्ज जानने वाले नेताओं की केंद्र और प्रदेशों में हैसियत की जरूरत होगी , जो 18 महीनो में प्रादेशिक स्तिर पर कही दिखी नही, नरेंद्र मोदी के साथ से समस्या है कि उन्होंने 18 महीने सबकुछ अपने एक चेहरे से साधना चाहा। अपने इर्द-गिर्द बौनों, पिग्मियों को रखा ताकि सब उन्हें देखते रहें। इस एप्रोच से मुख्यमंत्री तक का राज चल सकता है लेकिन सवा अरब लोगों के भारत के पैमाने का नहीं। न ही दो करोड़ अफसरों, उद्योगपतियों-कारोबारियों के मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया के जुमलों से एक अरब 27 करोड़ लोगों की भावनाएं जुड़ी रह सकती हैं। गरीब को गरीब की भाषा चाहिए, किसान को किसान की, हिंदू को हिंदू की भाषा और वह भी उसकी बोली, उसके अंदाज में। मोदी भक्तक भी मानें या न मानें बिहार की प्रकृति नरेंद्र मोदी को समझाने की कोशिश की ही है। बदलने का काम सोच में, फैसलों में, मंत्रियों में, चेहरों में, व्यवहार, कार्यशैली और प्राथमिकताओं में होना चाहिए। इस सवाल का जवाब भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में मिल जाए, इसकी उम्मीद बहुत कम ही रहती है. हर जीत के बाद श्रेय लेने के लिए बड़े नेता तो सामने आते हैं. लेकिन हार के बाद परिस्थितियां बदल जाती हैं. उसी बड़े चेहरे को बचाने की जद्दोजहद चलने लगती है. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत का सेहरा नरेंद्र मोदी के सिर बंधा था. लेकिन बिहार की हार के लिए बीजेपी संसदीय बोर्ड ने कह दिया कि ये पार्टी की नाकामी है, मोदी की नहीं. आखिर इस जंग के सेनापति तो वही थे. लेकिन हार को लेकर स्वयं मोदी ने सार्वजनिक तौर कुछ नहीं कहा और तो और बजाय सामने आने के वे भाइे के 600 गाने बजाने वालो के साथ लंदन के वेम्बेनल में अपनी चमत्का री छबि बनाने की मुहिम में चले गऐ, सत्तां में भारी बहुमत से काबिज भाजपा अभी भी इस बात से बेपरवाह हैं कि संसद आज भी विपक्ष के रहमोकरम पर चल रही हैं , दिल्लीे, बिहार के चुनाव परिणाम अगर आगे के विधानसभा चुनावो में भी दोहराये जाते हैं तो सरकार के लिऐ राज्य,सभा की मुसीबत से निकलना और मुश्किल हो जाऐगा ......
.सतीश कुमार चौहान 9827113539
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