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Saturday, October 10, 2015

धार्मिक उन्‍माद में लहलहाती सत्‍ता की फसल .....

   

एक गैरराजनैतिक, लगातार जिन्‍दगी से जुझते मध्‍यमवगींय आम आदमी का ये सवाल ,क्‍या सच में खौफनाक बन चुकी आज की राजनीति को कोई भी चुनौती देने की हिम्मत नही जुटा पा रहा. की शिनाख्‍त करते हुऐ मैं भी बेबस सा महसूस कर रहा हैं, देश के बुनियादी सवालो पर सरकार की नीति के अच्‍छे दिन का कुछ इंतजार किया जा सकता हैं  पर सरकार की नियत से पनप रहे अलगाव और अस‍हमति को तो नही रोका जा सकता,पडोसी देश के फिरकापरस्‍तो और देश के नक्‍सलवाद क्‍या कम तकलीफदेह हैं, जो हम बार बार कुछ अतिमहत्‍वकांक्षी उन्‍मादी गिरो‍ह के सांप्रदायिकता की चपेट में आ जाते हैं, अफसोस की इनके पीछे भी सत्‍ता की ही महत्वकाक्षा काम करती हैं ,संप्रदायिकता मनुष्यता के विरोध से ही शुरू होती है। मनुष्य मनुष्य के प्रति विश्वास और प्रेम के स्थान पर अविश्वास और घृणा घोल दी जाती  है । पूर्वाग्रह और अफवाहे इस विरोध और घृणा के लिए खाद  पानी  का  काम  करते  है । सांप्रदायिक उन्माद बढ़ने पर धर्मिक उत्तेजना बर्बर की स्थितियों को जन्म देती है। जहां हम यथार्थ को समग्रता में न देखकर खंड-खंड में देखना शुरू कर देते  है,यहाँ आकर मुनुष्य की चेतना भी खंडित होकर विवेक से नहीं  भ्रम से परिचालित  होती है और अंध हिंसा-प्रतिहिंसा जैसी अविवेकी अमानवीय त्रासदी  जन्म लेती है | जिसके  नाम पर ही मनुष्य समाज को  बांटा  जाता  है कि राजनीति में वोट बैंक के रूप में उसका उपयोग किया जा सके , दंगों को हर बार धर्म और आस्‍‍था के के लबादे में छुपाया जाता हैं, जबकी मूल कारण कुछ अवसरवादीयो की राजनैतिक सत्ता की भूख है, सत्‍ता का दुरूपयोग कर दंगाईयो को संरक्षण देना और दंगो से सत्ता की राह बनाना दो अलग अलग पर भयावह प्रजातांत्रिक प्रयोग हैं, जैसा कि  काग्रेस के संरक्षण में हुऐ 1984 के सिख विरोधी दंगे स्‍वयं काग्रेस के लिऐ  आत्‍मघाती र‍हा और गुजरात में मुस्लिम विरोध के दंगे भा ज पा के लिऐ लाभकर रहे , दरअसल प्रजातंत्र में संख्‍याबल के महत्‍व को भा ज पा ने हिन्‍दुत्‍व से बेहतर तलाशा , पर यदि हम इमानदारी से ढूंढें तो हमें हमारे ही मुल्क में अलपसंख्‍यक और बहुसंख्‍यक लोगो की तुलना में दोनों समुदायों में सच्चे धर्म निरपेक्ष लोगों की भी एक बड़ी संख्या है हमें उन लोगों पर चर्चा करनी चाहिए.उनकी भी चिंता करनी चाहिये, पर जिसतरह  समाज में सत्‍ता के प्रति अविश्‍वास पनप रहा हैं, लोगो को देश की लोकशाही के अलावा कार्यपालिका से भी सकरात्‍मक पहल की उम्‍मीद कम महसूस हो रही हैं, ये देश के लिऐ  दुर्भाग्‍यजनक  ही हैं की प्रजातांत्रिक देश में विभिन्‍न विचार धारा की सरकारो के नौकरशाह भी देश के लिऐ कम सरकार की के लिऐ ज्‍यादा जबाबदेह दिख रहे हैं, सं‍वैधानिक ढांचागत इस खामी से भी इंकार नही किया जा सकता, जब देश के आई एस / आई पी एस अपने  दिन की शुरूवात आठवी / दसवी पास मंत्री विधायक की चौखट पर माथा टेक कर शुरू होती हैं, वो कैसे राजनैतिक लाभ के दंगो / तनाव पर काम करेगें, और इसी का परिणाम हैं कि आज सत्ता पर काबिज होते ही राजनीतिदल  अपने विचारधारा से जुडे लोगो को महत्‍वपूर्ण पदो पर बैठाने के लिऐ तमाम मापदंडो को भी ताक में रख देती हैं, इसमें राज्‍यपाल  से लेकर शिक्षाकर्मी के पद तक ये प्रयोग निर्बाध रूप से चल रहे हैं , जिसका खामियाजा देश के अमनपरस्‍त मेहनत कर शिक्षित मध्‍यवर्ग को भुगतना पड रहा है, आज देश में फिरकापरस्‍त ताकते निरकुंश हो रही हैं , राजनैतिक लाभ के लिऐ दंगे कराना , समाज का धार्मिक स्‍तर पर धुर्वीकरण कर वोट बटोरना आज भी राजनैतिक दलो का चुनावी ह‍थकंडा हैं , जो सवा करोड लोगो के देश को सुपर पावर होने का भ्रम तोडने के लिऐ क्‍या ये काफी नही कि अपने ही बीच के इंसान को उसके घर के फ्रिज में रखे  मटन को गौमांस कह कर हजारो लोगो का एकाएक एकत्रित होना और  द्वारा आधी रात को निर्दयता से कुचल कुचल कर मार दिया जाना और फिर लोकतंत्र के सयानो द्वारा इसकी पैरवी करना , जाने किस लालच और भय ने देश के तमाम  राजनैतिक दलो के साथ साथ सामाजिक संगठनो को खुलकर इसके विरोध में आने से रोके रखा , मानवता से बढकर कर कौन से धर्म के भय में मोमबत्‍ती जलाने वाली जमात इंडियागेट न पहुंच सकी,  हम इस तरह ही मेक इंडिया, स्किल इंडिया और ग्रैट इंडिया बना रहे हैं , येन तेन प्रकारेण सत्‍ता पर काबिज होना ही राजनैतिक दलो का मूलमंत्र हैं तो क्‍या देश के बुद्विजीवी को भी दरबारी बना रहना श्रेयकर लग रहा हैं , तब तो नितिगत सवालो से हम इसी तरह  भटके रहेगें, कया ये अराजकता का प्रयोग नही हैं ?  देश का हर आदमी दहशत के साये में साँस ले ये लोकतंत्र की सफलता हैं ? वो कौन से धर्मउन्‍मादी  लोग हैं जिनके  देश के कानून, शासन, प्रशासन सब शिथिल ही नही बल्कि सुरक्षा कवज बना हुआ हैं ... ? ये एक यक्ष प्रश्‍न ही नही हैं अपितु हमारे गौरवशाली संविधान की विफलता की ओर र्इशारा करता हैं, ..........98271 13539 

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