हमारे शहर के गली नाली की साफ सफाई के लिऐ होने वाले निकाय चुनाव में ........ ल जीताना हे हमर पारा में दारू दुकान खुलाना हे..., इस तरह के नारे आम हैं, शहर में इस स्त र के चुनाव का भी काफी शोर हैं तमाम मंत्री संत्री भी खीस निपोरे हाथ पसारे घूम रहे हैं , प्रदेश के मुखिया भी चेता कर चले गऐ कि मुझे, मेरे दल के पार्षद और महापौर मिले तब ही आपके लिऐ विकास करूगा नही तो ................... मेरे व्य वसायिक क्षेत्र में चुनावी आहट के साथ ही गहमागहमी का शबाब महसूस होने लगा था, हर दो मिनट में ढोल नगाडो के साथ कुछ लोगो का जथ्थाे झण्डाह लहराते चिल्लामते घूम रहा हैं, जगह जगह हाथ जोडे प्रत्या शीयो के बडे बडे कटआउट लगे हैं, मीडिया के दफतरो में भैयया पान , गुटका, शाम को बैठते हैं, कोर्इ बतला रहा , कोई जतला रहा तो कोई फुस्स फुसा रहा हैं,फलैक्सट डिजार्इन बनाने वाले के यहां लोग लाईन लगाऐ खडे हैं फलैक्स ,आपसेट,लैडल मशीने तो रात दिन चल चल कर हांफ रही हैं,बच्चेह बच्चेक हाथो में हैण्डल बिल लिऐ बाटते हुऐ घुम रहे है, राजनीति के दलाल पौव्वाइ, पुडी, पैसा और पैट्रोल के हिसाब बनाने में मस्त हैं अर्थात भीडतंत्र का महाकुभं गोते लगाऐ जाओ .....हमारे निर्माण कार्य में बढते चुनावी शबाब के साथ लेबर की संख्याा लगातार घटती जा रही थी, कुछ लोगो प्रत्यामशीयो के समर्थक बन कर घूमने के रोजगार में लग गऐ थे, रोज के पौव्वा., पुडी, पैसा और पैट्रोल का इंतजाम तो था ही और सत्ताज सुन्दथरी से निकटता का ख्वाबब भी था चुनाव के एक दिन पहले तो एक मजदूर ने यह कह कर दो दिन की छुट्रटी कर दी की घर पर तीन चार चेपटी इकठी हो गई उसे पी कर खत्म करना हैं साहब इसलिऐ दो दिन नही आउगा, हमने चुनाव आयोग और प्रशासन की बात की तो उसने शिकायत कर कौन मरेगा कह कर बस्तीरयो का हाल बयान कर दिया, यह बात न मीडिया से छुपी हैं न प्रशासन से पर घण्टीब कौन लटकाऐ, दरअसल मुठ्रठी भर बुद्विजीवियो के विवेक और अनुशासन की बाते शेष बची प्रतीत होती हैं ,रात को शराब का खुला प्रयोग सत्ता पक्ष के लिऐ बिल्कुील आसान सी लाभदायक प्रक्रिया हैं,
सुबह पडोस के बंगाली दादा ने यह कर सच का सामना करा दिया की उन्हें् तो अपने वार्ड के प्रत्याहशीयो की शक्ल तो क्यास नाम भी नहीा मालूम, जाहिर हैं मंहगी दरो पर जमीन खरीदकर, बिजली ,सडक ,पानी जैसी बुनियादी आवश्याकताऔ को खुद जुटाने व भारीभरकम टैक्सक देने वाले वर्ग के लिऐ इन प्रत्यानशीयो की कोई खास आश्यनकता रहती नही और प्रत्याभशीयो को भी अपने योग्यकता और क्षमता की औकात इन कालोनीयो में आकर ही महसूस होती हैं इसीलिऐ प्रजातंत्र का यह महापर्व गरीबो की बस्तीऔयो में उल्लाोस व उत्सासह दिखाने तक सीमित हैं और इसको चिरस्थााई बनाऐ रखने के लिऐ गरीब और बस्तीा का बने रहना ही जरूरी हैं, अर्थात एक बडा वर्ग निकम्मा ही बना रहे तो तब ही प्रजातंत्र चल सकेगा,
चुनाव बुथ में भी आश्चहर्यजनक किस्म के राजनीतिकार नजर आते हैं,तमाम पट्रिटया छाप लोग झक् कपडे पहने फुस्सआफुसाते रहते तीन नम्बसर पर दीदी, भैयया कैसे याद है न आपको मिली की नही , कहां रहते हो यार कार्यालय में तो सब इन्तबजाम था आप नजर नही आऐ अच्छाय तीसरे नम्बिर पर हैं अपना निशान, देख लो भाई , माता जी संभल कर पैदल आऐ , आप वापस आओ मैं घर पहुचवा देता हूं मां वोट तीसरे नम्ब र पर ही डालना, आपका बेटा खडा....... हैं.... यही लोग शाम को , फिर वही पौव्वा , पुडी, पैसा और पैट्रोल के लिऐ लडते भीडते नजर आते हैं ,तब इनकी दल और प्रत्यािशी के प्रति प्रतिबद्वता तार तार होती नजर आती हैं इनकी डिंगे सुनकर प्रजातंत्र की निष्पनक्ष चुनावी कसौटी फिकी पड जाती हैं, मेरा व्यैक्तिगत इस चुनाव का अनुभव रहा, काफी हाउस में चुनाव प्रभारी सांसद द्वारा बैठ कर मोबाइल से किसी को यह आश्वाुसन दिया जा रहा था कि निंश्चित रहो मौके पर पुलिस देर से पहुचने को बोल दिये हैं ,
मतदान हम आपका अधिकार/दायित्वन तो हैं इसके प्रति मन हमेशा ही खटटा ही रहेगा क्यो की चुनाव हमेशा ही आम ईमली के बीच ही रहेगा .......................... सतीश कुमार चौहान, भिलाई
Wednesday, December 22, 2010
Saturday, September 18, 2010
एक मेहनती व्यापारी अपने व्यापार का बोझा लिऐ रोज आते जाते एक नौजवान को कई दिनो से पेड के नीचे आराम करते देख रहा था, एक दिन सुसताने के नाम पर वह भी उसी के पास बैठ कर बतियाने लगा, यह जानकर कि नौजवान कुछ काम ही नही करता हैं, वह आदतन उसे समझाने लगा मेहनत ईमानदारी की बाते नौजवान को उबाउ लगी तो उसने टोक दिया की आपकी यह लम्बी लम्बी बाते आसान तो हैं नही और इनसे मुझे हासिल क्या होगा....? व्यापारी ने शांति व आराम का जीवन मिलने की बात की तो नौजवान तपाक से बोल पडा . आराम से पेड के नीचे स्वस्थ हवा में बेफ्रिक पडा हूं, इससे तो अच्छा नही होगा,
आज पुरे अधिकार के साथ सब कुछ समाज से नोंच लेना देश में बढती बेबसी और गरीबी का मनोविज्ञान भी ऐसा ही बन रहा हैं जिसके साथ वोट बैंक की गंदी राजनीति मिल कर ऐतिहासिक आधार पर धार्मिक और जातिय से भी ज्यादा भयावह रूप से समाज में आर्थिक विषमता की खाई खोद रही हैं, जबकी दूरस्थ व काफी अन्दरूनी और अभाव में गुम हो रही जिन्दगीयो तक न तो सरकार पहुच पा रही हैं न विकास, और न ही किसी को इसकी चिन्ता हैं,संसद में बैठने वाले सयानो को ये बात समझ में आ गई हैं की जनप्रतिनीधित्व का कीडा शहरी सल्म में ही पनप सकता हैं, इस लिऐ अपने इर्दगिर्द्र निकम्मो की जमात तैयार रखी जाऐ जिनके हाथ में कही भी कभी भी झण्डे/डण्डे देकर राजनैतिक ताण्डव से भीडतंत्र का शक्ति प्रदर्शन किया जा सके, और यही लोग आज छाती पर गरीबी का मेडल लगाऐ सरकार द्वारा दी जा रही बैसाखी के सहारे देश के मध्यम वर्ग पर लगातार बोझ बनते जा रहे हैं, सरकार भी अपने वोट बैक क्ै च्श्मे से देखते हुऐ तमाम बुनियादी समस्याओ मसलन सही पानी, सडक, स्वास्थ, शिक्षा और रोजगार के बजाय गरीब बनाने बताने और गिनाने को ज्यादा श्रेयकर समझ रही,
पिछले दिनो एक लोकल चैनल की रिर्पोट की अनुसार एक छतीसगढ के पुरे एक कस्बे की पुरी आबादी से भी ज्यादा वहां गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालो के नाम दर्ज हैं जिनके राशन कार्ड भी बन गऐ हैं और चाउर वाले बाबाजी के सौजन्य से रूपयया किलो चावल भी बंट रहा हैं जबकी इस कस्बे में राज्य के तमाम अन्य कस्बो की ही तरह कारे, बंगले ,मोटरसायकल और तमाम ऐशो आराम के साधन भी उपलब्ध हैं , जाहिर हैं ये खेल कैसा किनका और किसलिऐ चलाया जा रहा हैं, एक दौर गरीबी हटाने का था जिसमें अफसरो और नेताओ मिलकर गरीब को ही हटाना श्रेयकर समझा, आज प्रदेश को खेती, खनिज और मेहनत की सम्पन्नता के लिऐ पुरे देश में ही नही विश्व में भी जाना जाता था, आज वहां का हर आदमी गरीब होने का सबूत लिऐ घुम रहा हैं जनकल्याणकारी योजनाओ के बाद भी गरीबी का आकडा इस दुर्भाग्यजनक ढंग से क्यो बढ रहा हैं......? इस बात की पुरी गुजांइस हैं कि राजतंत्र के लिऐ देश के लिऐ गरीबी व अभाव सदैव एक बडा मुद्रदा रहा है और आगे भी कम से कम प्रजातंत्र के साथ तो बना ही रहेगा,यहां इस बात पर भी चिन्ता बनी ही रहती हैं की गरीब कहा किसे जाऐ...,आजादी के छ दशक के बाद भी हम सरकारी अस्पताल के इलाज से कतराते हैं, पेडो के नीचे सकूल बदस्तूर चल रहे हैं जहा बच्चे पढने नही मध्यांन भोजन के लिऐ के लिऐ आते हैं, सडक पानी सब सरकारी योजनाऐ अराजकता के गंद से दूषित हैं, राज्य सरकार इस बात से मंत्रमुग्ध हैं कि वे मुफत में आनाज बिजली पानी शिक्षा बांट कर गरीब बनाने में अव्वल हैं, किसी को भी नऐ विकास योजनाओ , कल कारखानो और खेती की उन्नत् तकनीक, के विकास में कोई रूचि नही दिखती, और अन्तंत असंगठित मध्यम / औसत शिक्षित वर्ग के उपर तमाम बोझ डाल दिया जाता है, जो लगातार आर्थिक बोझ तले पिस रहा हैं,......
सतीश कुमार चौहान , भिलाई
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Wednesday, September 15, 2010
वाशबेसिन बाम मेरा शहर
हमारे नऐ घर के प्रवेश उत्सव की रंगोली भी नही हटी थी कि विकास प्राधिकरण के लोगो ने न घर के दरवाजे पर ही नाली के नाम पर भारी गउडा खोद दिया,पदस्थ इन्जीनियर से बात की तो उन्होने पुरे नियम गिना डाले साथ ही सरकारी मजबूरी भी जाहिर करते हुऐ अन्त में एहसान जताते हुऐ पुनं पुरा बनवा भी दिया, फिर तो साहब से नियमित हाय हैलो भी होने लगी,एक दिन साहब कुछ कागज पत्तर ले कर आऐ और औपचारिकता के तहत सन्तोषस्पद कार्यसम्पन्न के प्रमाण पत्र में दस्तखत करने को कहने लगे
हमने साहब के साथ चाय पीते पीते पढना शुरू किया नाली की लम्बाई, गहराई, पुलिया की संख्या, गुणवत्ता सब गोलमाल साफ दिख रहा था, काफी भष्ट्राचार की बू आ रही थी,, हम एहसान में दबे कुछ टोका टिप्पणी करते हुऐ दस्तखत कर ही दिये, यही साहब लगभग सत्रह साल बाद कल शाम होम डेकोर के यहां मिल गऐ, समय के साथ साहब में बडे अफसरी का रूतबा झलक रहा था साहब की सरकारी गाडी मयचालक बाहर खडी थी, बातचीत से पता चला साहब अपने घर के लिऐ वाशबेशिन लेने आऐ हैं, पानी के अलावा ठंडा भी पी चुके हैं पर वाशबेशिन नही जम रहा हैं, ,साईज डिजाईन, रंग, गहराई, ब्राड,दाम और फिटिंग का तरिका, कुल मिलाकर कोई न कोई खामी निकल ही रही हैं] साहब इन्टरनेट से भी काफी युनिक कलर व डिजाईन की की जानकारी लेकर आऐ थे, दुकानमालिक खिसिया भी रहा था और खीसनिपोर निपोर कर चापलूसी भी कर रहा था, साहब, सीटी इन्जीनियर जो थे दुकान का नौकर भी पडोस की दुकानो से भी कई वाशबेशिन ला लाकर थक गया था साहब निश्चय ही खर्च,उपयोगिता सुन्दरता और आधुनिकता की गंभीर सोच के साथ दूरद्वष्टि भी रखते थे, पर आखिर कयों इनके ही कार्यकाल में बने
शहर में तमाम खर्च के बाद भी अतिउपयोगी दोनो अण्उरब्रिजो में हर मौसम में पानी भरा रहता हैं,एक मात्र ओवर ब्रिज भी शहर के लिऐ नकारा हो गया, पुरे शहर की नालीया जाम होकर सडती रहती हैं, आखिर क्यों इस शहर में गढढो में ही सडक दिखती हैं, पोस्टरो में चांद सितारो से बाते करते मेरे शहर में बुनियादी आश्यकताओ के नाम पर लूट का आर्थिक व्याभिचार की शुरूआत भी इन्ही के कार्यालय से होती हैं, आखिर क्यों सरेआम चल रहा हैं,
आखिर मेरे शहर को वाशबेशिन बनाकर बहते पानी में हाथ तो सब धो रहै हैं पर..................
सतीश कुमार चौहान , भिलाई
हमने साहब के साथ चाय पीते पीते पढना शुरू किया नाली की लम्बाई, गहराई, पुलिया की संख्या, गुणवत्ता सब गोलमाल साफ दिख रहा था, काफी भष्ट्राचार की बू आ रही थी,, हम एहसान में दबे कुछ टोका टिप्पणी करते हुऐ दस्तखत कर ही दिये, यही साहब लगभग सत्रह साल बाद कल शाम होम डेकोर के यहां मिल गऐ, समय के साथ साहब में बडे अफसरी का रूतबा झलक रहा था साहब की सरकारी गाडी मयचालक बाहर खडी थी, बातचीत से पता चला साहब अपने घर के लिऐ वाशबेशिन लेने आऐ हैं, पानी के अलावा ठंडा भी पी चुके हैं पर वाशबेशिन नही जम रहा हैं, ,साईज डिजाईन, रंग, गहराई, ब्राड,दाम और फिटिंग का तरिका, कुल मिलाकर कोई न कोई खामी निकल ही रही हैं] साहब इन्टरनेट से भी काफी युनिक कलर व डिजाईन की की जानकारी लेकर आऐ थे, दुकानमालिक खिसिया भी रहा था और खीसनिपोर निपोर कर चापलूसी भी कर रहा था, साहब, सीटी इन्जीनियर जो थे दुकान का नौकर भी पडोस की दुकानो से भी कई वाशबेशिन ला लाकर थक गया था साहब निश्चय ही खर्च,उपयोगिता सुन्दरता और आधुनिकता की गंभीर सोच के साथ दूरद्वष्टि भी रखते थे, पर आखिर कयों इनके ही कार्यकाल में बने
शहर में तमाम खर्च के बाद भी अतिउपयोगी दोनो अण्उरब्रिजो में हर मौसम में पानी भरा रहता हैं,एक मात्र ओवर ब्रिज भी शहर के लिऐ नकारा हो गया, पुरे शहर की नालीया जाम होकर सडती रहती हैं, आखिर क्यों इस शहर में गढढो में ही सडक दिखती हैं, पोस्टरो में चांद सितारो से बाते करते मेरे शहर में बुनियादी आश्यकताओ के नाम पर लूट का आर्थिक व्याभिचार की शुरूआत भी इन्ही के कार्यालय से होती हैं, आखिर क्यों सरेआम चल रहा हैं,
आखिर मेरे शहर को वाशबेशिन बनाकर बहते पानी में हाथ तो सब धो रहै हैं पर..................
सतीश कुमार चौहान , भिलाई
Saturday, September 11, 2010
रागदरबारी
हमारे एक मित्र काफी दिनो बाद मिले हाथ मिलाते ही कहने लगे अरे यार लिखते हो की छोड दिये , मैने हसं कर बात टालने की कोशिश की तो उन्होने सामने एक रंगीन मल्टीकलर आफसेट में मलाईदार विदेशी पेपर की किताब रखते हुऐ कहने लगे इसके लिऐ कुछ लिखो यार , निश्चय की किताब अनर्तराष्टीय कलेवर की दिख रही थी आवरण पर सुबे के मुखिया की आकर्षक फोटो के साथ कुछ सरकारी जुमले लिखे थे किताब के पहले पन्ने को देखते ही मैं चौंक गया ये मित्र महोदय संपादक थे उनके घर के बीबी बच्चे सब प्रकाशक, वरिष्ठ व प्रंबध संपादक साथ ही कुछ राजनैतिक व व्यापारी किस्म के दोस्त संपादक मण्डल में थे , यहां मेरे मित्र ही नही जिन लोगो को मैं जानता था उनकी योग्यता से किताब ही लेखन/पठन का कही भी तालमेल तो कतई नही बैठ रहा था हां कुछ लोग सेटिग में जरूर माहिर थे ,इसी तरह किताब के बैनर संबोधन पर छतीसगढ कला, साहित्य, जनचेतना की सर्म्पित एक मात्र मासिक पत्रिका लिखा भी आंखो को गड रहा था, जो था सब राज्य की सरकार का खुल्लम खुल्ला स्तुतीगान था, दरअसल गठन के बाद इस राज्य में एकाएक अखबारो और किताबो की तो बाढ सी आ गई हैं, तमाम विज्ञप्तिबाज किस्म के लोग अखबारो/ किताबो के संपादक बैठ गऐ हैं, मंत्रालय में घुस बैठे राजनैतिक किस्म के तथाकथित साहित्यकारो का यह गुरूमंत्र हैं कि मुख्य पेज पर सुबे के राजनैतिक आकाओ की फोटो छापकर इसी तरह अन्तिम पेज पर किसी सरकारी योजना का अच्छा विज्ञापन छाप दो, बस पक गऐ बीस पच्चीस हजार कुछ कमीशन देनी पडेगी चेक आपके हाथ में , कार्यालीयन खानापूर्ति के लिऐ प्रतिया चाहे दस भी छपे , न आफिस न स्टाफ, लगे तो स्थानीय निगम प्रशासन जनसम्पर्क विभाग को पटा सटा के आफिस व घर के लिऐ कोडी के भाव जमीन लेकर ऐश करो
पुरे राज्य में रागदरबारी का स्तुतीगान अपने चरम पर हैं, हिन्दी के गुरूजी बताते थे कि विद्वान लेखक, साहित्यकार और कवि बेचारे अपनी पाण्डुलिपी सहेजे हुऐ परलोक सिधार गऐ, जिनके किताबे छपी उनके गहने बर्तन बिक गऐ, पर आज आऐ दिन किताबो का विमोचन राजनेताओ के आतिथ्य में हो रहा हैं बीच में कमीशनबाज प्रकाशक से लेकर अफसर तक सक्रिय हैं, इसी प्रक्रिया का एक हास्यास्पद नमूना हैं कि राज्य के कई नेता और अधिकारी भी विभिन्न अपने को साहित्यकार बताने लगें हैं..........कई पेशेवर साहित्यिक पीठ तो ऐसे काम कर रहे जैसे सरकार के लिऐ साहित्यिकार वोट बैंक बना रहे हो.......
धन्य हैं देश का प्रिंट मीडिया...... शेष फिर...
सतीश कुमार चौहान , भिलाई
पुरे राज्य में रागदरबारी का स्तुतीगान अपने चरम पर हैं, हिन्दी के गुरूजी बताते थे कि विद्वान लेखक, साहित्यकार और कवि बेचारे अपनी पाण्डुलिपी सहेजे हुऐ परलोक सिधार गऐ, जिनके किताबे छपी उनके गहने बर्तन बिक गऐ, पर आज आऐ दिन किताबो का विमोचन राजनेताओ के आतिथ्य में हो रहा हैं बीच में कमीशनबाज प्रकाशक से लेकर अफसर तक सक्रिय हैं, इसी प्रक्रिया का एक हास्यास्पद नमूना हैं कि राज्य के कई नेता और अधिकारी भी विभिन्न अपने को साहित्यकार बताने लगें हैं..........कई पेशेवर साहित्यिक पीठ तो ऐसे काम कर रहे जैसे सरकार के लिऐ साहित्यिकार वोट बैंक बना रहे हो.......
धन्य हैं देश का प्रिंट मीडिया...... शेष फिर...
सतीश कुमार चौहान , भिलाई
डाक्टर . बैग/झोला छाप
देश की तमाम सरकारी योजनाओ की बात करते हुऐ जिस तरह जुबान गंदी महसूस होती हैं वही हालात अब बुनियादी बातो पर भी होने लगी हैं, गुजरात के सरकारी अस्पताल में दो नवजात इन्कुबेटर शारीरिक तापमान बनाऐ रखने वाले उपकरण में जलकर राख हो गऐ, हाल में ही चार बच्चे सरकारी अस्पताल में वैक्सीन लगाते ही ठंडे पड गऐ, इन मासूम नादान बच्चो के परिवारो के अलावा सब भूल गऐ,
हर बार की तरह फिर पैरा मेडिकल स्टाफ को कोस सरकार ही नही हम आप सब चुप हो गऐ ....ये तो रोज की बात हैं और हम तो बेहतर इलाज ले ही रहे है, बेहतर अर्थात पांच सितारा......
पिछले दिनो हमारे औसत दर्जे के शहर में स्वाईन फलू नाम की मीडियाई चिल्लपौ मच गई, शहर के एक मीडियापरस्त खाटी किस्म के पुराने दाउ व राजनैतिक गिरोहबंदी से चल रहे अस्पताल में मरीज की भर्ती होने से लेकर इलाज प्रक्रिया को मीडिया द्वारा आवश्यक अनावश्यक तामझाम के साथ नियमो के खिलाफ मय फोटो दिखाया पढाया जाने लगा ,इलाज से जुडे मरीज को मिल रहे स्वास्थ लाभ की राम कथा सुनाते रहे और मरीज राम को प्यारा हो गया, अब इलाज से हीरो बन रहे डाक्टर / अस्पताल ही नही पुरी सरकार कटघरे में हैं जो मीडिया पहले डाक्टर / अस्पताल के चाय समोसे खा पी कर समाचारो को नमकीन बना रही थी वही अब बेचारे मरीजो के आंसू में समाचारो को डुबा डुबाकर पुरे स्वास्थ सेवा में ही कडुवाहट घोल रही हैं, ऐसी बीमारीयो के साथ समस्या भी गंभीर ही होती हैं परिणाम दुखद होने की संभावना ज्यादा ही रहती हैं, यहां समस्या हैं, ढिढोंरा क्यों......
दरअसल चिकित्सक इलाज को अपनी बिक्री की वस्तु बना चुके हैं और फीस को फिरोती, मरीज के प्रति इनकी कोई जबाबदेही नही हैं कितना आश्चर्य हैं कि देश के ये व्हाईट कालर क्रिमिनल किस्म के डाक्टरो ने या तो अपने शाही खर्चो को इतना बढा लिया हैं या स्वयं के हुनर पर इतना विश्वास नही हैं कि मंहगे डायग्नोस्टिक व दवाईयो के कमीशन न मिले तो घर का चुल्हा भी न जले,घर में थाली लोटा चादर पर ही नही घर में राशन सब्जी भी डायग्नोस्टिक / दवाई कपंनी के एम.आर. पहुचा रहे हैं फिर भी ये तबका समाज के लिऐ लिऐ कही जबाबदेह नही कभी कोई इनकी करतूत पर सवाल करे तो इन बैग छाप डाक्टरो का गिरोह पुरे शहर ही नही देश का भी स्वास्थ बिगाडने की दादागिरी दिखाता हैं और हम आप बेबस हो जाते हैं और स्वंय सरकार लकवाग्रस्त हो जाती हैं, बेचारे झोला छाप रात को दो बजे भी दरवाजे की दस्तक पर लुंगी पहने झोला लिऐ भारत छाप ब्लेड के दम पर ही मजदूर के घर पर ही डिलवरी करा रहे हैं चार दिन में मां काम पर बच्चा अकेला साडी से बने झूले में लटका रहता है , फीस नही तो चल बाद में दे देना , कोई कंसल्टेशन नही, दस रूपये में पूडिया सूजी दे रहे हैं पैसा नही तो भी चलेगा गरीब पांच सितारा अस्पताल/डाक्टर दोनो के पास जाने से डरता हैं और अब तो बडे अस्पताल/डाक्टर भी झोला छाप के दरवाजे पर चक्कर लगा रहे हैं यार पेसेंट भेजो कमीशन देगें साफ मतलब देश के सफेद पोश काले कारनामो से जीने को मजबूर क्योकी स्वयं इनसे कतरा रहे हैं, ये दिन में बीस मरीज देख कर पद्रह को ही, तो झोला सौ मरीज को देखकर नब्बे को राहत पहुचा रहा हैं, ईर्ष्या तो होगी ही ........और ये झोला छाप वही हैं जो बैग छाप के यहां के इस लिऐ बिना वेतन शटर उठाने से लेकर बन्द करने तक क्लीनिको के अलावा घरेलू काम भी करते हैं कि उन्हें डाक्टर बना दिया जाऐगा इन्हे इतना भी समझा दिया जाता हैं की दूरस्थ क्षेत्रो में किस तरह डाक्टर का एजेंट बन कर काम करे, और यही हाल आज नर्सिग होम का हैं जिसको चला रहे हैं झोला छाप, बाहर सतरंगी बोर्डो पर शहर के तमाम विख्यात डाक्टरो के नाम लिखे रहते हैं जो शहर के लगभग सभी नर्सिग होम के सामने सामूहिक रूप से लटके रहते हैं पर कभी भी कोई मिलता नही हैं मरीज आया तो फोन करो, मिल गऐ तो मरीज और संचालक की किस्म्त, कुल मिलाकर ये मरीज फंसाओ जाल, इन पढे लिखे डाक्टरो के नाम पर तो आता नही, नर्सिग होम वाला फंसा कर लाऐगा बिना किसी खर्च व जबाबदेही के इलाज कर का दावा करेगे ठीक वैसा ही जैसा मेडिकल वही हाल हैं मेडिकल स्टोर में बैठ कर मेडिकल की दवाई बिकवाना,
जाने कब यह बीमार व्यवस्था सुधरेगी........ आगे सरकारी अस्पताल और डाक्टर.....
.. सतीश कुमार चौहान , भिलाई
हर बार की तरह फिर पैरा मेडिकल स्टाफ को कोस सरकार ही नही हम आप सब चुप हो गऐ ....ये तो रोज की बात हैं और हम तो बेहतर इलाज ले ही रहे है, बेहतर अर्थात पांच सितारा......
पिछले दिनो हमारे औसत दर्जे के शहर में स्वाईन फलू नाम की मीडियाई चिल्लपौ मच गई, शहर के एक मीडियापरस्त खाटी किस्म के पुराने दाउ व राजनैतिक गिरोहबंदी से चल रहे अस्पताल में मरीज की भर्ती होने से लेकर इलाज प्रक्रिया को मीडिया द्वारा आवश्यक अनावश्यक तामझाम के साथ नियमो के खिलाफ मय फोटो दिखाया पढाया जाने लगा ,इलाज से जुडे मरीज को मिल रहे स्वास्थ लाभ की राम कथा सुनाते रहे और मरीज राम को प्यारा हो गया, अब इलाज से हीरो बन रहे डाक्टर / अस्पताल ही नही पुरी सरकार कटघरे में हैं जो मीडिया पहले डाक्टर / अस्पताल के चाय समोसे खा पी कर समाचारो को नमकीन बना रही थी वही अब बेचारे मरीजो के आंसू में समाचारो को डुबा डुबाकर पुरे स्वास्थ सेवा में ही कडुवाहट घोल रही हैं, ऐसी बीमारीयो के साथ समस्या भी गंभीर ही होती हैं परिणाम दुखद होने की संभावना ज्यादा ही रहती हैं, यहां समस्या हैं, ढिढोंरा क्यों......
दरअसल चिकित्सक इलाज को अपनी बिक्री की वस्तु बना चुके हैं और फीस को फिरोती, मरीज के प्रति इनकी कोई जबाबदेही नही हैं कितना आश्चर्य हैं कि देश के ये व्हाईट कालर क्रिमिनल किस्म के डाक्टरो ने या तो अपने शाही खर्चो को इतना बढा लिया हैं या स्वयं के हुनर पर इतना विश्वास नही हैं कि मंहगे डायग्नोस्टिक व दवाईयो के कमीशन न मिले तो घर का चुल्हा भी न जले,घर में थाली लोटा चादर पर ही नही घर में राशन सब्जी भी डायग्नोस्टिक / दवाई कपंनी के एम.आर. पहुचा रहे हैं फिर भी ये तबका समाज के लिऐ लिऐ कही जबाबदेह नही कभी कोई इनकी करतूत पर सवाल करे तो इन बैग छाप डाक्टरो का गिरोह पुरे शहर ही नही देश का भी स्वास्थ बिगाडने की दादागिरी दिखाता हैं और हम आप बेबस हो जाते हैं और स्वंय सरकार लकवाग्रस्त हो जाती हैं, बेचारे झोला छाप रात को दो बजे भी दरवाजे की दस्तक पर लुंगी पहने झोला लिऐ भारत छाप ब्लेड के दम पर ही मजदूर के घर पर ही डिलवरी करा रहे हैं चार दिन में मां काम पर बच्चा अकेला साडी से बने झूले में लटका रहता है , फीस नही तो चल बाद में दे देना , कोई कंसल्टेशन नही, दस रूपये में पूडिया सूजी दे रहे हैं पैसा नही तो भी चलेगा गरीब पांच सितारा अस्पताल/डाक्टर दोनो के पास जाने से डरता हैं और अब तो बडे अस्पताल/डाक्टर भी झोला छाप के दरवाजे पर चक्कर लगा रहे हैं यार पेसेंट भेजो कमीशन देगें साफ मतलब देश के सफेद पोश काले कारनामो से जीने को मजबूर क्योकी स्वयं इनसे कतरा रहे हैं, ये दिन में बीस मरीज देख कर पद्रह को ही, तो झोला सौ मरीज को देखकर नब्बे को राहत पहुचा रहा हैं, ईर्ष्या तो होगी ही ........और ये झोला छाप वही हैं जो बैग छाप के यहां के इस लिऐ बिना वेतन शटर उठाने से लेकर बन्द करने तक क्लीनिको के अलावा घरेलू काम भी करते हैं कि उन्हें डाक्टर बना दिया जाऐगा इन्हे इतना भी समझा दिया जाता हैं की दूरस्थ क्षेत्रो में किस तरह डाक्टर का एजेंट बन कर काम करे, और यही हाल आज नर्सिग होम का हैं जिसको चला रहे हैं झोला छाप, बाहर सतरंगी बोर्डो पर शहर के तमाम विख्यात डाक्टरो के नाम लिखे रहते हैं जो शहर के लगभग सभी नर्सिग होम के सामने सामूहिक रूप से लटके रहते हैं पर कभी भी कोई मिलता नही हैं मरीज आया तो फोन करो, मिल गऐ तो मरीज और संचालक की किस्म्त, कुल मिलाकर ये मरीज फंसाओ जाल, इन पढे लिखे डाक्टरो के नाम पर तो आता नही, नर्सिग होम वाला फंसा कर लाऐगा बिना किसी खर्च व जबाबदेही के इलाज कर का दावा करेगे ठीक वैसा ही जैसा मेडिकल वही हाल हैं मेडिकल स्टोर में बैठ कर मेडिकल की दवाई बिकवाना,
जाने कब यह बीमार व्यवस्था सुधरेगी........ आगे सरकारी अस्पताल और डाक्टर.....
.. सतीश कुमार चौहान , भिलाई
Friday, September 10, 2010
पुलिस .... मजबूती या मजबूरी
पिछले दिनो हमारे एक मित्र का बरामंदे में रखा गैस सिलेण्डर चोरी हो गया,स्वाभविक था, कि थाने में रिर्पोट लिखाई जाय, मित्र के साथ मैं भी थाने चला गया जहां पहुचते ही कुछ असहज महसूस होने लगा, गलियारेनुमा माहौल में आपस में उलझे चार पांच टेबल जिसके साथ लगी कुर्सीयो पर सरकारी बाबु किस्म के तीन वर्दीधारी लोग बैठे, एक आदमी प्रार्थी की शक्ल में भी खडा था, दिवार पर महापुरूषो की फोटोमय मकडी के जाल लटकी थी , खिडकी और चौखट पान गुटके से दागदार थी, एक आदमी आदमी बगल में कैमरा और मुंह में गुटका दबाऐ समाज शास्त्र की बातें कर रहा था, संभवत किसी समाचार की जुगत भीडा पत्रकार था,जेलनुमा दरवाजे में भी दो लोग झांक रहे थे,
वेलकम स्माईल की कोई गुजाईश नही थी, हमने दफतरी अभिवादन की पंरम्परा में औपचारिक मुस्कान तो बखेरी पर कोई रिस्पांस दिखा नही, उनकी बाते और हमारा खडा रहना दोनो ही अपनी अपनी जगह अटपटा महसूस हो रहा था, हमारे मित्र को शाम की ओ. पी. डी. में जाना था इसलिऐ मुंशी साहब को टोक ही दिया, सर एक कम्पलेशन लिखानी थी, शायद बात किसी को भी हजम नही हुई माहौल में कुछ कडवाहट सी घुलती प्रतीत हुई, एक ने कुछ उसी अन्दाज में पुछा किस बात की ...?. जी..मित्र ने बताया गैस सिलेण्डर चोरी हो गया,
वर्दीधारी . चोरी हो गया या कार किट का जुगाड जमा रहे हो…?
मित्र ने कहा नही हम तो पैट्रोल कार में ही ठीक हैं, वर्दीधारी .क्या करते हैं आप..? मेन हास्पीटल में डाक्टर हूं गैस सिलेण्डर चोरी हो गया क्यो बोल रहे हो….? सीधा सीधा गुम हो गया बोलो
मित्र कुछ चिढते हुऐ ....साहब कोई अगूठी थोडी हैं जो गुम जाऐगी या फिसल जाऐगी..
वर्दीधारी कागज लेकर कार्बन लगाते हुऐ बुदबुदाया गैस एजेंसी को दिखाना हैं चलिऐ अपना नाम बताईऐ ?
डा.रोहित पाल
जाति ?
राजपूत मुंशी जी की कलम एक झटके में रूक गई पाल और राजपूत, दूसरे मंशी से क्यो यादव जी, राजपूतो में भी पाल होता हैं….?
यादव जी अपनी कलम अलग रखते हुऐ .. क्या कहे अब समझ कंहा आता हैं नाई तो ठाकुर लिखता हैं... बीच में ही कैमरा वाले जनाब कूद पडे यार वो बिहार में एक दिन के लिऐ मुख्यमंत्री बना था न, क्या नाम था ..... ? अरे बस्ती जिले का रहने वाला ....जगदंम्बिका पाल....वह भी तो राजपूत ही लिखता हैं,
वेलकम स्माईल की कोई गुजाईश नही थी, हमने दफतरी अभिवादन की पंरम्परा में औपचारिक मुस्कान तो बखेरी पर कोई रिस्पांस दिखा नही, उनकी बाते और हमारा खडा रहना दोनो ही अपनी अपनी जगह अटपटा महसूस हो रहा था, हमारे मित्र को शाम की ओ. पी. डी. में जाना था इसलिऐ मुंशी साहब को टोक ही दिया, सर एक कम्पलेशन लिखानी थी, शायद बात किसी को भी हजम नही हुई माहौल में कुछ कडवाहट सी घुलती प्रतीत हुई, एक ने कुछ उसी अन्दाज में पुछा किस बात की ...?. जी..मित्र ने बताया गैस सिलेण्डर चोरी हो गया,
वर्दीधारी . चोरी हो गया या कार किट का जुगाड जमा रहे हो…?
मित्र ने कहा नही हम तो पैट्रोल कार में ही ठीक हैं, वर्दीधारी .क्या करते हैं आप..? मेन हास्पीटल में डाक्टर हूं गैस सिलेण्डर चोरी हो गया क्यो बोल रहे हो….? सीधा सीधा गुम हो गया बोलो
मित्र कुछ चिढते हुऐ ....साहब कोई अगूठी थोडी हैं जो गुम जाऐगी या फिसल जाऐगी..
वर्दीधारी कागज लेकर कार्बन लगाते हुऐ बुदबुदाया गैस एजेंसी को दिखाना हैं चलिऐ अपना नाम बताईऐ ?
डा.रोहित पाल
जाति ?
राजपूत मुंशी जी की कलम एक झटके में रूक गई पाल और राजपूत, दूसरे मंशी से क्यो यादव जी, राजपूतो में भी पाल होता हैं….?
यादव जी अपनी कलम अलग रखते हुऐ .. क्या कहे अब समझ कंहा आता हैं नाई तो ठाकुर लिखता हैं... बीच में ही कैमरा वाले जनाब कूद पडे यार वो बिहार में एक दिन के लिऐ मुख्यमंत्री बना था न, क्या नाम था ..... ? अरे बस्ती जिले का रहने वाला ....जगदंम्बिका पाल....वह भी तो राजपूत ही लिखता हैं,
आप भी बिहार के ही हैं क्या ...?. बैठिये बैठिये
इस बीच कोई डबल स्टार पुलिस अफसर की थाने में इंट्री हुई सब तेजी से सावधान की मुद्रा खडे हो गऐ ...... गैस सिलेण्डर को भूल, हम अपने परर्स्नेल्टी ,नाम जाति के प्रति सावधान हो गए थे
शेष फिर कभी ......
सतीश कुमार चौहान भिलाई
Tuesday, September 7, 2010
नेता जी का मजगा

सतीश कुमार चौहान , भिलाई
Saturday, June 19, 2010
पिछले दिनो सपरिवार एक मंदिर जाना हुआ, जी.ई.रोड पर कुछ चढावा लेने के उदेश्य गाडी रोक ली भीड भाड तो काफी थी दुकाने भी थी,पर श्रीफल अर्थात नरियल ही नही मिल रहा था, दो चार दुकान घुम कर हम एक दुकान के सामने कुछ बढबढाऐ की दुकानदार पास की शराब दुकान की ओर ईशारा करते हुऐ कहने लगा जनाब ये बाजार भीड शराबीयो की हैं, यहा पानी पाउच चना मसाला अण्डा चिकन चिल्ली मिलेगा कहां आप नरियल तलाश रहे हैं, बात बात में जब हमने पास के मंदिर की बात की, तो वह और टेढे होते हुऐ बोलने लगे मंदिर में तो नरियल मिलेगा ही और वहां भी कौन आप को नरियल फोडने देगा, अब पांच सितारा लेबल की मंदिर बन रहे हैं , जहां तेल सिन्दूर धूप बत्ती,बेल पत्ती के लिऐ स्थान ही बाहर कर दिया गया हैं,अब जो चढता हैं वो मंदिर की रोलिंग सम्पति हैं जो नरियल, शाल,चादर अगरबत्ती के रूप में यहां तक की भोग सामग्री भी मंदिर ट्रस्ट द्वारा मंदिर परिसर में स्थित अथाराइड दुकानो पर ही मिलता हैं, और इन दुकानो पर बिकने वाले तमाम पूजा अर्चना का सामान मंदिर में चढे सामानो ही होतें हैं और हम तो अपने कपडे चार महीने पहन के फैंक भी दे पर भगवान के कपडे सालो साल चलते हैं,भगवान का गर्भगह तो काल कोठरी हैं सा बनाया जाता हैं और तमाम तरह की बेदी के नाम पर पुरा फुटबाल मैदान के आकार की कीमती जमीन घेर दी जाती हैं, मंदीरो में अब चढावा भी गुप्तदान फैशनेबल शब्द बन गये हैं, देश के नब्बे प्रतिशत लोगो का आर्थिक आकडा जिन दस प्रतिशत लोगो के हाथ हैं वे मंदीरो के बांड्र एम्बेस्डर हैं जिनके आने से पहले देश के प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को पहले बुलाया जाता हैं इनके दान को भी ऐसे चिल्लाया जाता हैं, जैसे भगवान जी बस इनके हाथो नीलाम हो रहे हैं इनसे ज्यादा चढावा चढा कर भगवान अपने नाम कर लो,कई बार तो ऐसा लगता हैं की मंदिर समितियो विज्ञापन के तौर पर बडे बडे उघोगपतिओ और नेताओ अभिनेताओ को मंदिर समितियो द्वारा पैसा देकर मंदिर बुलाया जाता हैं उससे पहले पुरी मीडिया, अंबानी परिवार और तेल बाम और पहले उत्तर प्रदेश और अब गुजारत के लिऐ बिकने वाले सदी के महानायक इसका त्वरित उदाहरण हैं, रघुनाथ मंदिर के पास तो एक मंदिर का पुरा बाजार हैं जहां तमाम भगवान के पिण्ड रखे है और सबके पास दरबान की तरह सजधज के चोला झोला के साथ पुजारी खडे हो जाते हैं,जिनके बारे में कहा कि ये टेण्डर के भरकर नियुक्त होते हैं जो स्वयं भगवान के पास बडे बडे नोट चढावे के रूप में बिखेर देते हैं और भक्त को भगवान के महिमा में अर्थ लाभ के छलावे में उलझा कर मोटी रकम ऐंठ लेते हैं कई बार भक्त को श्राप भी दिलवाने की बाते करते हुऐ अपमानित भी करते है,इसी तरह दक्षिण के कुछ मंदिरों में पर्दा प्रचलन हैं जहां पहाडी रास्तो अथवा भीड की वजह से त्रस्त हाल में मंदिर चौखट पर पहुचने वाले भक्त की हैसियत का अन्दाजा लगाते हुऐ भगवान की मूर्ति को काले पर्दे में ले लिया जाता हैं और फिर शुरू होते हैं दर्शन के मोल..कुछ क्रम में जैसे देश के कुछ बडे मंदिरो में चल रहा हैं वी. आई. पी. गेट और पास का दस्तूर हैं,भगवान तो बस इनके हाथ की कठपुतली हैं, किससे कब और किस कीमत पर मिलना हैं ये सब मंदिर समितियो को ही तय करना हैं कुछ विचारशील लोगो ने मूर्ति के बजाय व्यक्ति पूजा का सोचा तो मंदिर समितियो ने भिखारीयो को भी भीख मांगने के लिऐ यूनियन द्वारा संचालित हो रही हैं और इनमे भी टेण्डर होता हैं कुल मिलाकर भगवान तो बस इनके हाथ की कठपुतली हैं, किससे कब और किस कीमत पर मिलना हैं ये सब मंदिर समितियो को ही तय करना हैं ..............
और एक उदाहरण हैं देहरादून से मंसूरी जाते हुऐ सुनसान पहाडी पर बने भोले शंकर प्राईवेट लिमटेड मंदिर जहां जगह जगह लिखा हैं यहां किसी भी तरह का फल,फूल,पैसे व प्रसाद चढाना सक्त मना हैं,ऐसा करने पर अपमानित किया जा सकता हैं, और तो और यहां लगातार मिलने वाले प्रसाद जिसे कहेंगे स्तरीय सात्विक भोजन व चाय क्या कहने टेस्ट के बाद ही टिप्पणी हो तो बेहतर.... सतीश कुमार चौहान ,भिलाई
और एक उदाहरण हैं देहरादून से मंसूरी जाते हुऐ सुनसान पहाडी पर बने भोले शंकर प्राईवेट लिमटेड मंदिर जहां जगह जगह लिखा हैं यहां किसी भी तरह का फल,फूल,पैसे व प्रसाद चढाना सक्त मना हैं,ऐसा करने पर अपमानित किया जा सकता हैं, और तो और यहां लगातार मिलने वाले प्रसाद जिसे कहेंगे स्तरीय सात्विक भोजन व चाय क्या कहने टेस्ट के बाद ही टिप्पणी हो तो बेहतर.... सतीश कुमार चौहान ,भिलाई
Thursday, May 20, 2010
इमोशनल अत्याचार




ऐसा ही कुछ कर रहे हैं हमारे देश के बाबा किस्म के लोग.......निरोग के लिऐ योग तो ठीक हैं,पर संत के चोले में चल रहा जडी बूटी का बडा
कारर्पोरेट बिजनेश पुरे देश में उसके आउटलेट खोल कर झोला छाप लोगो की कलम से प्रमाणिकताहीन जडी बूटी, सब्जी भाजी,नैतिकता और डाक्टरेट की किताबो के आकर्षक पैकट उचे दाम पर बिकवाना ये भी तो हैं इमोशनल अत्याचार..............


जमूरे शुरू हो जा सांस अन्दर ले, पैसे छोड दे
photo qsbs.blogspot
Wednesday, May 5, 2010
कमीशन की बीमारी

कमीशन की बीमारी पिछले दिनो सेल द्वारा संचालित प्रदेश के सबसे बडे अर्थात 1000 बिस्तर के सर्वसुविधासम्पन्न आलिशान अस्पताल के आपात कक्ष के पास से गुजर रहा था कि एक बदहवाश ग्रामीण ने मुझे रोकते हुऐ एक पर्ची दिखाते हुऐ पता पुछा, एक प्राईवेट और अपेक्षाक्रत स्तरहीन अस्पताल का पता था जहां असानी से पहुचना भी मुश्किल था, मैने पता बताने से पहले पुछ ही लिया क्यों..., उसने छाती से लगाऐ छोटे से बच्चे को दिखाते हुऐ बताया कि खेलते बच्चे को कोई स्कूटर से मार कर चले गया चालीस किलोमीटर दूर गांव से लाऐ हैं, डाक्टर हाथ नही लगा के देखने के बजाय पर्ची लिख दिया हैं यहां जाओ,मैंने बच्चे को देखा बच्चे का शरीर अकड रहा था, संभवत् दिमाग की किसी नस पर चोट से हो रहा रिसाव का खून कही जम रहा था, और इससे दिमाग सुन्न हो रहा था ऐसे में ये आवश्यक था, बच्चे को तुरंत Anticoagulant like heparin देकर बचाव किया जा सकता हैं, मैंने बेहतर समझा की उपस्थित चिकित्सक से ही बात की जाय तो जूनियर डाक्टर जी ने पहले तो मुझे मेरी औकात बताई,फिर उस ग्रामीण पर नेतागिरी करने का आरोप लगाते हुऐ बच्चे के प्रति अशोभनीय टिप्पणी करने लगे , तब तक मैं काफी उग्र होते हुऐ उपलब्ध ज्वांइट डायरेक्टर से मिला तो उन्होने अपने अस्पताल में पदस्थ पिडियाट्रीक न्यूरो फिजीशियन द्वारा महापौर का चुनाव लडने की वजह से जनसम्पर्क में व्यस्त हैं , खैर मेरे हो हल्ला से बच्चे का इलाज तो शुरू हो ही गया था,यहां मेरा ये सवाल था कि जिस प्राईवेट अस्पताल में नवयुवक पिडियाट्रीक न्यूरो फिजीशियन के लिऐ इस बच्चे को भेजा जा रहा वहां इस बात की कोई गारंटी नही थी की वे वहां उपस्थित होगें ही उनकी ओ.पी. डी; तो प्रदेश के तीन शहरो में हैं और वे स्वयं तमाम छोटे बडे नर्सिग होम में भाग भाग कर इलाज करने के शौकिन हैं जबकी ऐसे केस को जहां बच्चे का सही जगह पर पहुचना निश्चित न लग रहा हो तो आनन फानन में जीवन बचाने के लिऐ एम.डी.मेडिसिन की सेवाऐ ली जा सकती हैं,जो की इस अस्पताल में सीनियर जूनियर मिलाकर आठ दस तो हर वक्त ही रहते है, पर यहां ये भी स्पष्ट करना आवश्यक हैं कि पिडियाट्रीक न्यूरो फिजीशियन न सही पर न्यूरो फिजीशियन एक और यहा पदस्थ हैं जिनकी बेहतर सेवाऐ ली जा सकती थी ,मैं गैरचिकित्सक होने की वजह से दरअसल इस प्रकरण को लापरवाही या नासमझी मानकर टालना कतई उचित नही समझता सीधे तौर पर यह कमीशन का जानलेवा खेल हैं अपेक्षाक्रत स्तरहीन अस्पताल से इस केस के पहुचने मात्र से पर्ची देने वाले डाक्टर की जेब गरम कर देते.............
Saturday, April 24, 2010
घूटन या दो तंमाचे
घूटन या दो तंमाचे
पिछले दिनो देश के एक बडे बैंक समूह के दफतर जाना हुआ ,दरअसल एक परिचित की अचानक मौत हो गई थी, जिनकी श्रीमति पहले ही गुजर चुकी थी, पिताजी के पैसे तो थे पर देश के सबसे बडे दस हजार शाखाऐ , 8500 ए टी एम वाले बैंक के खाते में ,जिसके लिऐ बच्चीया परेशान हो रही थी रोज तमाम दस्तावेज बनवा कर बैंक जाती कोई न कोई कमी बताकर बैंक लौटा देता ,मई जून की गर्मी में रोज रोज की भाग भागदोड कर अपने पिता और स्वंय अपने तमाम दस्तावेजो साथ ही इस बैंक का खाताधारी पहचानकर्ता और उसके तमाम दस्तावेज जुटाने के बावजूद परेशान ये लोग हार कर मेरे पास पहुचे मुझसे जमानत लेने की बात कही, मैं इनके पिताजी को व्यक्तीगत तौर पर जानता था और इसी बैंक में भी मेरा लम्बे समय से स्वस्थ सम्बंध था,स्वभाविक तौर पर मैंने तुरंत जमानतदार के तौर पर अपना अकांउण्ट नम्बर के साथ हस्ताक्षर कर दिये, कुछ दिनो बाद ,मुझे फिर उनका फोन आया कि आप को बैंक में बुला रहे हैं, मैं बच्चीयो के प्रति स्वाभाविक हमदर्दी पर बैंक का इस तरह बुलाना ठीक नही लगा, खैर मैं, लुभावने कारर्पोरेट चकाचौंध के ए.सी.बैंक नियत समय पर पहुच गया, मलाईदार शक्लो के लोग के हाथ कमांड थी, खैर मैंने अपनी उपस्थिती दर्ज कराई, उनका टका सा सवाल आपकी पहचान,मैंने अपने अकांउण्ट नम्बर का वास्ता दिया उन्हे वह मंजूर नही मैंने हस्ताक्षर मिलान को भी वे तैयार नही मैंने यातायात विभाग के कार्ड को भी यह कह कर खारिज कर दिया कि ये तो सडको पर बनते हैं जिस पर यातायात अधिक्षक का हस्ताक्षर थे,मुझे एहसास हो गया ये साहब सहयोग करने के कतई मूउ में नही हैं,मैंने शाखा प्रमुख के ओर रूख किया प्रकरण देखते ही उनको अपने शानदार आफिस की महक खराब होने का भय सताने लगा फिर वो कैसे अपने बाबु की बात काटते खैर मैंने वोटर आई.डी. से मैंने मेरे कहे जाने वाले बैंक को अपनी पहचान बताई पर साहब को अब ये मेरे रहने का भी सबूत चाहिये था चलिये मैने ये भी लाकर दिया की मैंने इसी बैंक के पास अपनी पच्चीस लाख रूपये की प्रापर्टी बतौर बंधक रख नौ लाख लोन लेकर चौदह लाख भरने का लगातार पिछले चार सालो से सफल प्रयास कर रहा हूं , और दरअसल इसी ब्याज के खेल से ये उपर से चिकने चुपडे अन्दर से फटी चडडी पहनने वाले लोगो को ए.सी. का सुख ही नही मिलता,रोजी रोटी भी चलती हैं,
मुझे बैंक के नियम कायदो से कोई शिकायत नही है,और नही मुझे इस पर कोई सुझाव देना हैं पर कुबेर के इन दलालो से यह सवाल कतई गैरवाजिब नही कि तमाम आन लाईन, इन्टरनेट, कोर बैंकिग की बाते करने वालो ने जब खाता खोला था तब मेरे तमाम से को दस्तावेजो को लेकर,समझकर,ही मुझे अपना ग्राहक बनाया था,तो क्या मेरे अकांउण्ट नम्बर के साथ हस्ताक्षर से तमाम जानकारी को प्रमाणित नही किया जा सकता था...? या सीधे जनसामान्य की भाषा में बैंक द्वारा पैसे हजम करने का तरीका नही हैं..? या ये मान लिया जाऐ की निगम दफतरो के बाबुओ की तरह यहां भी हराम की आदत की आदत लग रही हैं ,
उल्लेखनीय हैं कि केवल भारतीय रिजर्व बैंक के अधीनस्थ अपने आपको राष्टीयक़त बैंक होने का दम भरने वाले ये गैर सरकारी बैंक हमारे ही जमा पूजीं को बाजार में चला कर जी रहे हैं और सबका बैंक जैसे स्लोगन के नीचे बैठे लोग को किसी से मदद तो दूर बात का सहूर भी नही हैं ,
भारतीय जनमानस के लिऐ पल पल घटने वाली सामान्य सी घटना हैं ,लडना नियमो के खिलाफ हैं , शिकायत अर्जीयो का खिलवाड हैं पर घूटन से तो बेहतर ही हैं की पुरे आफिस के सामने दो तमाजा तो लगा ही दो............
सतीश कुमार चौहान , भिलाई
पिछले दिनो देश के एक बडे बैंक समूह के दफतर जाना हुआ ,दरअसल एक परिचित की अचानक मौत हो गई थी, जिनकी श्रीमति पहले ही गुजर चुकी थी, पिताजी के पैसे तो थे पर देश के सबसे बडे दस हजार शाखाऐ , 8500 ए टी एम वाले बैंक के खाते में ,जिसके लिऐ बच्चीया परेशान हो रही थी रोज तमाम दस्तावेज बनवा कर बैंक जाती कोई न कोई कमी बताकर बैंक लौटा देता ,मई जून की गर्मी में रोज रोज की भाग भागदोड कर अपने पिता और स्वंय अपने तमाम दस्तावेजो साथ ही इस बैंक का खाताधारी पहचानकर्ता और उसके तमाम दस्तावेज जुटाने के बावजूद परेशान ये लोग हार कर मेरे पास पहुचे मुझसे जमानत लेने की बात कही, मैं इनके पिताजी को व्यक्तीगत तौर पर जानता था और इसी बैंक में भी मेरा लम्बे समय से स्वस्थ सम्बंध था,स्वभाविक तौर पर मैंने तुरंत जमानतदार के तौर पर अपना अकांउण्ट नम्बर के साथ हस्ताक्षर कर दिये, कुछ दिनो बाद ,मुझे फिर उनका फोन आया कि आप को बैंक में बुला रहे हैं, मैं बच्चीयो के प्रति स्वाभाविक हमदर्दी पर बैंक का इस तरह बुलाना ठीक नही लगा, खैर मैं, लुभावने कारर्पोरेट चकाचौंध के ए.सी.बैंक नियत समय पर पहुच गया, मलाईदार शक्लो के लोग के हाथ कमांड थी, खैर मैंने अपनी उपस्थिती दर्ज कराई, उनका टका सा सवाल आपकी पहचान,मैंने अपने अकांउण्ट नम्बर का वास्ता दिया उन्हे वह मंजूर नही मैंने हस्ताक्षर मिलान को भी वे तैयार नही मैंने यातायात विभाग के कार्ड को भी यह कह कर खारिज कर दिया कि ये तो सडको पर बनते हैं जिस पर यातायात अधिक्षक का हस्ताक्षर थे,मुझे एहसास हो गया ये साहब सहयोग करने के कतई मूउ में नही हैं,मैंने शाखा प्रमुख के ओर रूख किया प्रकरण देखते ही उनको अपने शानदार आफिस की महक खराब होने का भय सताने लगा फिर वो कैसे अपने बाबु की बात काटते खैर मैंने वोटर आई.डी. से मैंने मेरे कहे जाने वाले बैंक को अपनी पहचान बताई पर साहब को अब ये मेरे रहने का भी सबूत चाहिये था चलिये मैने ये भी लाकर दिया की मैंने इसी बैंक के पास अपनी पच्चीस लाख रूपये की प्रापर्टी बतौर बंधक रख नौ लाख लोन लेकर चौदह लाख भरने का लगातार पिछले चार सालो से सफल प्रयास कर रहा हूं , और दरअसल इसी ब्याज के खेल से ये उपर से चिकने चुपडे अन्दर से फटी चडडी पहनने वाले लोगो को ए.सी. का सुख ही नही मिलता,रोजी रोटी भी चलती हैं,
मुझे बैंक के नियम कायदो से कोई शिकायत नही है,और नही मुझे इस पर कोई सुझाव देना हैं पर कुबेर के इन दलालो से यह सवाल कतई गैरवाजिब नही कि तमाम आन लाईन, इन्टरनेट, कोर बैंकिग की बाते करने वालो ने जब खाता खोला था तब मेरे तमाम से को दस्तावेजो को लेकर,समझकर,ही मुझे अपना ग्राहक बनाया था,तो क्या मेरे अकांउण्ट नम्बर के साथ हस्ताक्षर से तमाम जानकारी को प्रमाणित नही किया जा सकता था...? या सीधे जनसामान्य की भाषा में बैंक द्वारा पैसे हजम करने का तरीका नही हैं..? या ये मान लिया जाऐ की निगम दफतरो के बाबुओ की तरह यहां भी हराम की आदत की आदत लग रही हैं ,
उल्लेखनीय हैं कि केवल भारतीय रिजर्व बैंक के अधीनस्थ अपने आपको राष्टीयक़त बैंक होने का दम भरने वाले ये गैर सरकारी बैंक हमारे ही जमा पूजीं को बाजार में चला कर जी रहे हैं और सबका बैंक जैसे स्लोगन के नीचे बैठे लोग को किसी से मदद तो दूर बात का सहूर भी नही हैं ,
भारतीय जनमानस के लिऐ पल पल घटने वाली सामान्य सी घटना हैं ,लडना नियमो के खिलाफ हैं , शिकायत अर्जीयो का खिलवाड हैं पर घूटन से तो बेहतर ही हैं की पुरे आफिस के सामने दो तमाजा तो लगा ही दो............
सतीश कुमार चौहान , भिलाई
Wednesday, April 21, 2010
लोकतंत्र तथाकथित प्रहरी
लोकतंत्र तथाकथित प्रहरी
पिछले दि नो एक लोकतंत्र तथाकथित प्रहरी के साथ बैठक हो गई , समाज, व्यवस्था, राजनीति, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्सा,व्यापार,उद्वोग आदि आदि पर इनकी भावुक टिप्पणीयो में मुझे लगातार अराजकता की आहट सुनाई पड रही थी, तमाम बाते ढोल की पोल खोल रही थी दरअसल ये मित्र एक औसत दर्जे के पत्रकार हैं , अर्थाभाव में ज्यादा पढ तो नही पाऐ थे पर सुबह का सदुपयोग करते हुऐ अखबार बाटते थे,बिल के साथ विज्ञप्ति भी इकठा करने लगे और जल्द ही विज्ञापनो की कमीशन का चस्का लग गया,उसे भी बटोरने लगे फिर कमीशन के लिऐ समाचारो का मेनुपुलेशन करके विज्ञापनो को ही शातिराना शब्दो से समाचार की शक्ल देने लगे, जल्द ही अखबार के मालिक के लिऐ धन जुटाने और राजसत्ता के विचारधारा को हवा देने के प्रयोग में सफल होकर शहर के ब्यूरो प्रमुख हो गऐ तमाम सहूलियते शहर भैयया किस्म के लोगो से मिलने लगी, छत के साथ साथ और चार पहियो का भी जुगाड हो गया, मंत्री जी के आर्शिवाद से विदेश यात्रा भी हो गई किसी राजनैतिक व सामाजिक के बजाय मसाज कराने के टूर में , हैसियत ऐसी हैं कि शहर के तमाम बडे प्रतिष्ठान ही नही पुलिस विभाग भी समय समय पर इनके लिऐ शराब और कबाब का इंतजाम करने को तत्पर रहता हैं, आला अफसर के तबादले ओहदे के लिऐ भी ये मंत्री संत्री की दलाली कर लेते हैं,अखबार के मालिको से मिलने वाली वेतन के रूप में छोटी सी रकम तो यह दफतर के लोगो में ही खिला पिला के खत्म कर देते है, तमाम आफिस स्टाफ भी इसकी जिंदादिली की वजह से हमेशा इन पर मेहरबान रहते हैं समाचारो के लिऐ आवश्यक गोपनियता ऐसी की किसी की शिकायत के लिऐ अगर कोई अखबार को खत लिखे तो इनके के लिऐ उगाही के दो शिकार तैयार, शाम से ही इनके आस पास तमाम शिक्षामाफिया, भूमाफिया, राजनैतिक, प्रशासनिक लोग साथ ही मीडिया परस्त अपेक्षाक़त ज्यादा योग्य आचार्य,प्रचार्य,कलाकार और तथाकथित साहित्यकार भी दण्डवत करते नजर आते हैं, पुलिस के चपेट में आने वाले लोग भी इनके मोबाइल की मदद लेते रहते हैं और ये महोदय भी अपनी कुटिल मुस्कान के साथ सदैव सर्मपित रहते थे , देर रात ये जिनके साथ शराबखोरी में लुडकते दिखे सुबह वही सम्माननीय, इनके अखबार के बैनर में मयफोटो नजर आऐगे, इनके लिऐ ग्यारह बजे के बाद दिन निकलता हैं और घर की ओर रूख कब होता होगा कुछ कह नही सकते, चेहरे की खमोशी अब क्रूरता मे बदल गई हैं , अखबार मालिक को सरकारी की सहूलियतो के साथ विज्ञापनो के लिऐ इनकी जरूरत हैं , सरकार को अपने तमाम कारनामे पर जनहित की चाशनी के साथ लोगो में अपनी छबि बनाये रखने के लिऐ इनकी आवश्यकता हैं और इन महाशय को मीडिया का एक बैनर तो चाहिये जिससे ये अपने आप को प्रजातंत्र के गण देवता होने का मैडल लगाये रहे, और दुर्भाग्य ये हैं की हमारी आपकी सुबह की शुरूवात ही इन्ही के शातिराना शब्दजाल में फंसकर देश प्रदेश, नेता अभिनेता, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्सा,व्यापार,उद्वोग बाजार, समाज के प्रति अपना मनोविज्ञान बनाने बिगाडने से ही शुरू होती हैं, दरअसल मुझे भी प्रजातंत्र के इस चौथे स्तंम्भ पर गर्व महसूस होता था और जिस अखबार से मुझे सुबह आंख खोलने की ताकत मिलती थी, मैं ठेले दर ठेले ताक झांक कर जिन समाचारपत्रो से अपने दिमाग को झकझोरता रहता था वैसा कुछ रहा नही अब तो आऐ दिन बैग लटकाऐ ऐसे अखबारो के मार्केटिग एक्जक्युटीव मेरी श्रीमति को चाय पत्ती, कुर्सी, टावल, बैग ,ग्लास और जाने क्या क्या प्रलोभन दे कर अखबार का ग्राहक बना देते हैं, और जाने कब गेट पर फेंक कर चले जाते हैं,अब इसके लिऐ भौर सुबह कोई उत्साहजनक इन्तजार भी नही रहता, सच बताउ मुझे अब इनकी अखबार भी नुक्कड स्थित शाही दवाखाने से मर्दानगी के नाम पर बटने वाली पम्पलेट के सामान लगती हैं,और औसतन अखबारो के दफतर में ऐसे ही पत्रकार चला रहे हैं, इनसे कही बेहतर सम्मान वैभव और सभ्यता के साथ उसी दफतर में मार्केटिग और सर्कुलेशन विभाग के लोग नजर आते हैं, निश्चय ही हम आप नैतिकता की राह पर महत्वकांक्षा की अंधी दोड दोडने सक्षम नही रहे , ठीक उसी तरह जैसे डाक्टर मरीज को मरने नही देता तो ठीक भी नही होने देता, वकील अपने क्लांइण्ट को केस हारने नही देता तो जीतने भी नही देता, प्रेस वार्ता,इनके लिऐ लंच डीनर का जुगाड है,
मीडिया परस्ती के इस दौर में अखबार जगत का व्यवसायिककरण होना कोई आश्चर्य नही है, पर यह सवाल भी स्वाभाविक हैं कि पाठक को को मिल क्या रहा है और उसकी अपेक्षा क्या हैं समाचार को विचार के रूप में परोसना कंहा तक उचित हैं समाज, व्यवस्था, राजनीति, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्सा,व्यापार,उद्वोग आज हर कोई मीडिया का दुरूपयोग करने को अमादा हैं और स्वयं अखबार को यह आत्मविश्वास नही रहा की पाठकवर्ग को वह ऐसी सामग्री दे सकता हैं कि पाठको से उसे न्यूनतम लाभ मिल सके,अखबारो मे पाठको की भागीदारी लगातार गिर रही है,और अखबार सरकारी विज्ञापनो के मोहजाल में फंस कर आम जनता के स्वास्थ, शिक्षा, रोजगार और समाज को क्या मिल रहा है और उसका हक क्या है , ऐसे बुनियादी सवालो से भाग रहा हैं, थानो से अपराध के बारे में पुछ कर,नेताओ के आरोप प्रत्यारोप, राजनीति,प्रशासनिक पट्रटीया छाप नेताओ की विज्ञप्ति छापकर कुछ इन्टरनेट से मार कर सैकडो अखबार निकल रहे हैं, कुछेक तो सामान्य लेडल प्रिंटिग की दुकान से दस बीस प्रति निकाल कर सरकारी सेटिंग व गैरसरकारी ब्लैकमेलिंग से विज्ञापन बटोर रहे हैं , पर जैसा की हमारे देश में (संभवत: पहली बार) लहलहा चले ज्यादातर क्षेत्रीय अखबारों को यह गलतफहमी हो गई है, कि लोकतंत्र के यही एक गोवर्धन जो है, इन्हीं की कानी उंगली पर टिका हुआ है। इसलिए वे कानून से भी ऊपर हैं। ऊपरी तौर से इस भ्रांति की कुछ वजहें हैं। क्योंकि हर जगह से हताश और निराश अनेक नागरिक आज स्वयम इस ढंग से मीडिया की शरण में उमड़े चले जा रहे हैं। और यह भी सही है, कि हमार यहाँ अनेक बड़े घोटालों तथा अपराधों का पर्दाफास भी मीडिया ने ही किया है। लेकिन ईमान से देखें तो अपनी व्यापक प्रसार संख्या के बावजूद भाषायी पत्रकारिता का अपना योगदान इन दोनों ही क्षेत्रों में बेहद नगण्य है। दूसरी तरफ ऐसे तमाम उदाहरण आपको वहाँ मिल जाएंगे, जहाँ हिंदी पत्रकारों ने छोटे-बड़े शहरों में मीडिया में खबर देने या छिपाने के नाम पर एक माफियानुमा दबदबा बना लिया है।
प्रोफेशनल मापदण्डो के तहत क्या इनके लिऐ कोई ड्रिग्री डिप्लोमा अनिवार्य नही होना चाहिये , क्या यहां चल रही सामंतवादी प्रव़तियो पर आरक्षण आवश्यक नही हैं, दुराचरण साबित होने पर एक डॉक्टर या चार्टर्ड अकाउण्टेंट नप सकता है, तो एक गैरजिम्मेदार पत्रकार क्यों नहीं ? मैं व्यक्तिगत तौर पर शुरू से ही इस पेशे से काफी प्रभावित रहा , पर यही सही वक्त हैं जब इसकी छवि बिगाड़ने वाली इस तरह की घटिया पत्रकारिता के खिलाफ ईमानदार और पेशे का आदर करने वाले पत्रकारों का भी आंदोलित होना आवश्यक बन गया है, क्योंकि इसके मूल में किसी पेशे की प्रताड़ना नहीं, पत्रकारिता को एक नाजुक वक्त में सही धंधई पटरी पर लाने की स्वस्थ इच्छा है। यहां यह भी उल्लेख्नीय हैं कि क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस दुराचरण से कोई भी पत्रकार पनप नही सका क्योकी तमाम प्रश्रय देने वाले अपेक्षाक्रत ज्यादा ही अवसरवादी होते हैं जो शक्ति को येन तेन प्रकारेण निचोडने के बाद अन्तंत जूठी पत्तल की तरह फैंक देते हैं,
पिछले दि नो एक लोकतंत्र तथाकथित प्रहरी के साथ बैठक हो गई , समाज, व्यवस्था, राजनीति, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्सा,व्यापार,उद्वोग आदि आदि पर इनकी भावुक टिप्पणीयो में मुझे लगातार अराजकता की आहट सुनाई पड रही थी, तमाम बाते ढोल की पोल खोल रही थी दरअसल ये मित्र एक औसत दर्जे के पत्रकार हैं , अर्थाभाव में ज्यादा पढ तो नही पाऐ थे पर सुबह का सदुपयोग करते हुऐ अखबार बाटते थे,बिल के साथ विज्ञप्ति भी इकठा करने लगे और जल्द ही विज्ञापनो की कमीशन का चस्का लग गया,उसे भी बटोरने लगे फिर कमीशन के लिऐ समाचारो का मेनुपुलेशन करके विज्ञापनो को ही शातिराना शब्दो से समाचार की शक्ल देने लगे, जल्द ही अखबार के मालिक के लिऐ धन जुटाने और राजसत्ता के विचारधारा को हवा देने के प्रयोग में सफल होकर शहर के ब्यूरो प्रमुख हो गऐ तमाम सहूलियते शहर भैयया किस्म के लोगो से मिलने लगी, छत के साथ साथ और चार पहियो का भी जुगाड हो गया, मंत्री जी के आर्शिवाद से विदेश यात्रा भी हो गई किसी राजनैतिक व सामाजिक के बजाय मसाज कराने के टूर में , हैसियत ऐसी हैं कि शहर के तमाम बडे प्रतिष्ठान ही नही पुलिस विभाग भी समय समय पर इनके लिऐ शराब और कबाब का इंतजाम करने को तत्पर रहता हैं, आला अफसर के तबादले ओहदे के लिऐ भी ये मंत्री संत्री की दलाली कर लेते हैं,अखबार के मालिको से मिलने वाली वेतन के रूप में छोटी सी रकम तो यह दफतर के लोगो में ही खिला पिला के खत्म कर देते है, तमाम आफिस स्टाफ भी इसकी जिंदादिली की वजह से हमेशा इन पर मेहरबान रहते हैं समाचारो के लिऐ आवश्यक गोपनियता ऐसी की किसी की शिकायत के लिऐ अगर कोई अखबार को खत लिखे तो इनके के लिऐ उगाही के दो शिकार तैयार, शाम से ही इनके आस पास तमाम शिक्षामाफिया, भूमाफिया, राजनैतिक, प्रशासनिक लोग साथ ही मीडिया परस्त अपेक्षाक़त ज्यादा योग्य आचार्य,प्रचार्य,कलाकार और तथाकथित साहित्यकार भी दण्डवत करते नजर आते हैं, पुलिस के चपेट में आने वाले लोग भी इनके मोबाइल की मदद लेते रहते हैं और ये महोदय भी अपनी कुटिल मुस्कान के साथ सदैव सर्मपित रहते थे , देर रात ये जिनके साथ शराबखोरी में लुडकते दिखे सुबह वही सम्माननीय, इनके अखबार के बैनर में मयफोटो नजर आऐगे, इनके लिऐ ग्यारह बजे के बाद दिन निकलता हैं और घर की ओर रूख कब होता होगा कुछ कह नही सकते, चेहरे की खमोशी अब क्रूरता मे बदल गई हैं , अखबार मालिक को सरकारी की सहूलियतो के साथ विज्ञापनो के लिऐ इनकी जरूरत हैं , सरकार को अपने तमाम कारनामे पर जनहित की चाशनी के साथ लोगो में अपनी छबि बनाये रखने के लिऐ इनकी आवश्यकता हैं और इन महाशय को मीडिया का एक बैनर तो चाहिये जिससे ये अपने आप को प्रजातंत्र के गण देवता होने का मैडल लगाये रहे, और दुर्भाग्य ये हैं की हमारी आपकी सुबह की शुरूवात ही इन्ही के शातिराना शब्दजाल में फंसकर देश प्रदेश, नेता अभिनेता, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्सा,व्यापार,उद्वोग बाजार, समाज के प्रति अपना मनोविज्ञान बनाने बिगाडने से ही शुरू होती हैं, दरअसल मुझे भी प्रजातंत्र के इस चौथे स्तंम्भ पर गर्व महसूस होता था और जिस अखबार से मुझे सुबह आंख खोलने की ताकत मिलती थी, मैं ठेले दर ठेले ताक झांक कर जिन समाचारपत्रो से अपने दिमाग को झकझोरता रहता था वैसा कुछ रहा नही अब तो आऐ दिन बैग लटकाऐ ऐसे अखबारो के मार्केटिग एक्जक्युटीव मेरी श्रीमति को चाय पत्ती, कुर्सी, टावल, बैग ,ग्लास और जाने क्या क्या प्रलोभन दे कर अखबार का ग्राहक बना देते हैं, और जाने कब गेट पर फेंक कर चले जाते हैं,अब इसके लिऐ भौर सुबह कोई उत्साहजनक इन्तजार भी नही रहता, सच बताउ मुझे अब इनकी अखबार भी नुक्कड स्थित शाही दवाखाने से मर्दानगी के नाम पर बटने वाली पम्पलेट के सामान लगती हैं,और औसतन अखबारो के दफतर में ऐसे ही पत्रकार चला रहे हैं, इनसे कही बेहतर सम्मान वैभव और सभ्यता के साथ उसी दफतर में मार्केटिग और सर्कुलेशन विभाग के लोग नजर आते हैं, निश्चय ही हम आप नैतिकता की राह पर महत्वकांक्षा की अंधी दोड दोडने सक्षम नही रहे , ठीक उसी तरह जैसे डाक्टर मरीज को मरने नही देता तो ठीक भी नही होने देता, वकील अपने क्लांइण्ट को केस हारने नही देता तो जीतने भी नही देता, प्रेस वार्ता,इनके लिऐ लंच डीनर का जुगाड है,
मीडिया परस्ती के इस दौर में अखबार जगत का व्यवसायिककरण होना कोई आश्चर्य नही है, पर यह सवाल भी स्वाभाविक हैं कि पाठक को को मिल क्या रहा है और उसकी अपेक्षा क्या हैं समाचार को विचार के रूप में परोसना कंहा तक उचित हैं समाज, व्यवस्था, राजनीति, प्रशासन,शिक्षा, चिकित्सा,व्यापार,उद्वोग आज हर कोई मीडिया का दुरूपयोग करने को अमादा हैं और स्वयं अखबार को यह आत्मविश्वास नही रहा की पाठकवर्ग को वह ऐसी सामग्री दे सकता हैं कि पाठको से उसे न्यूनतम लाभ मिल सके,अखबारो मे पाठको की भागीदारी लगातार गिर रही है,और अखबार सरकारी विज्ञापनो के मोहजाल में फंस कर आम जनता के स्वास्थ, शिक्षा, रोजगार और समाज को क्या मिल रहा है और उसका हक क्या है , ऐसे बुनियादी सवालो से भाग रहा हैं, थानो से अपराध के बारे में पुछ कर,नेताओ के आरोप प्रत्यारोप, राजनीति,प्रशासनिक पट्रटीया छाप नेताओ की विज्ञप्ति छापकर कुछ इन्टरनेट से मार कर सैकडो अखबार निकल रहे हैं, कुछेक तो सामान्य लेडल प्रिंटिग की दुकान से दस बीस प्रति निकाल कर सरकारी सेटिंग व गैरसरकारी ब्लैकमेलिंग से विज्ञापन बटोर रहे हैं , पर जैसा की हमारे देश में (संभवत: पहली बार) लहलहा चले ज्यादातर क्षेत्रीय अखबारों को यह गलतफहमी हो गई है, कि लोकतंत्र के यही एक गोवर्धन जो है, इन्हीं की कानी उंगली पर टिका हुआ है। इसलिए वे कानून से भी ऊपर हैं। ऊपरी तौर से इस भ्रांति की कुछ वजहें हैं। क्योंकि हर जगह से हताश और निराश अनेक नागरिक आज स्वयम इस ढंग से मीडिया की शरण में उमड़े चले जा रहे हैं। और यह भी सही है, कि हमार यहाँ अनेक बड़े घोटालों तथा अपराधों का पर्दाफास भी मीडिया ने ही किया है। लेकिन ईमान से देखें तो अपनी व्यापक प्रसार संख्या के बावजूद भाषायी पत्रकारिता का अपना योगदान इन दोनों ही क्षेत्रों में बेहद नगण्य है। दूसरी तरफ ऐसे तमाम उदाहरण आपको वहाँ मिल जाएंगे, जहाँ हिंदी पत्रकारों ने छोटे-बड़े शहरों में मीडिया में खबर देने या छिपाने के नाम पर एक माफियानुमा दबदबा बना लिया है।
प्रोफेशनल मापदण्डो के तहत क्या इनके लिऐ कोई ड्रिग्री डिप्लोमा अनिवार्य नही होना चाहिये , क्या यहां चल रही सामंतवादी प्रव़तियो पर आरक्षण आवश्यक नही हैं, दुराचरण साबित होने पर एक डॉक्टर या चार्टर्ड अकाउण्टेंट नप सकता है, तो एक गैरजिम्मेदार पत्रकार क्यों नहीं ? मैं व्यक्तिगत तौर पर शुरू से ही इस पेशे से काफी प्रभावित रहा , पर यही सही वक्त हैं जब इसकी छवि बिगाड़ने वाली इस तरह की घटिया पत्रकारिता के खिलाफ ईमानदार और पेशे का आदर करने वाले पत्रकारों का भी आंदोलित होना आवश्यक बन गया है, क्योंकि इसके मूल में किसी पेशे की प्रताड़ना नहीं, पत्रकारिता को एक नाजुक वक्त में सही धंधई पटरी पर लाने की स्वस्थ इच्छा है। यहां यह भी उल्लेख्नीय हैं कि क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस दुराचरण से कोई भी पत्रकार पनप नही सका क्योकी तमाम प्रश्रय देने वाले अपेक्षाक्रत ज्यादा ही अवसरवादी होते हैं जो शक्ति को येन तेन प्रकारेण निचोडने के बाद अन्तंत जूठी पत्तल की तरह फैंक देते हैं,
Monday, April 12, 2010
खरी खरी
इस ब्लाग रचनाकार भिलाई से प्रकाशित सामाजिक,राजनैतिक और साहित्यिक पत्रिका
छतीसगढ आसपास में नियमित रूप से खरी खरी लिख रहे है, साथ ही साहित्यिक संस्था
मुक्तकंठ के अध्यक्ष व संपादक भी हैं
छतीसगढ आसपास में नियमित रूप से खरी खरी लिख रहे है, साथ ही साहित्यिक संस्था
मुक्तकंठ के अध्यक्ष व संपादक भी हैं
Saturday, March 13, 2010
सरकार
सरकार 
रमुआ के यहां से थाली बजने
की आवाज आई,
पुर्व निर्धारित पांचवी संतान के
आने का संकेत,
टुटी सायकल पर फटी बण्डी पहने
मट्रटी तेल बेचने वाला रमुआ
खुशी से मदमस्त हो रहा हैं
स्वास्थ, शिक्षा,रोजगार के लिऐ नही
सिर्फ पौव्वा के लिऐ वोट देता हैं,
रमुआ, देश की सरकार को,
अधेड कुपोषण का शिकार, रामकली
रमुआ की पत्नी अथवा रमुआ की सरकार
जो दे चुकी हैं चार साल में पांचवी संतान
अर्थात बुढापे का पांचवा सहारा
इसलिऐ खुशी से मदमस्त हो रहा हैं..........

सतीश कुमार चौहान, भिलाई
098271 13539
रमुआ के यहां से थाली बजने
की आवाज आई,
पुर्व निर्धारित पांचवी संतान के
आने का संकेत,
टुटी सायकल पर फटी बण्डी पहने
मट्रटी तेल बेचने वाला रमुआ
खुशी से मदमस्त हो रहा हैं
स्वास्थ, शिक्षा,रोजगार के लिऐ नही
सिर्फ पौव्वा के लिऐ वोट देता हैं,
रमुआ, देश की सरकार को,
अधेड कुपोषण का शिकार, रामकली
रमुआ की पत्नी अथवा रमुआ की सरकार
जो दे चुकी हैं चार साल में पांचवी संतान
अर्थात बुढापे का पांचवा सहारा
इसलिऐ खुशी से मदमस्त हो रहा हैं..........
सतीश कुमार चौहान, भिलाई
098271 13539
Tuesday, January 26, 2010
Tuesday, January 19, 2010
भ्रष्टाचार
हर दफतर का शिष्टाचार बन बैठा हैं भ्रष्टाचार
कहता हमसे हाथ मिलाओ, कर देंगें तुम्हारा बैडा पार ,
मैं भी इतराया ,अपने आप को कर्मयोगी बतालाया,
पर वो भी कहां था मानने वाला,
उसने पुरे प्रजातंत्र को ही कुछ इस तरह खंगाला
बार्फोस,ताबूत,तेलगी,तहलका,हवाला सब गिना डाला,
बडे गर्व से उसने कहा भष्ट्र नेता जनता न संभाल पाऐगे,
बन जाओ हमारे ओ हरिशचंद तुम्हारे बच्चे भी पल जाऐगें,
नेता, अभिनेता, पुलिस, कानून,हर कोई साथ मेरे नाचता हैं
पंडित कुरान तो मुल्ला रामायण बांचता हैं,
अवसरवाद् के दौर में भष्ट्रचार का ही जूनून हैं
जनतंत्र के शरीर में भष्ट्रचार का ही खून हैं
मेरा तो स्वाभिमान खौल रहा था भष्ट्राचार सर चढ के बोल रहा था,
मुझे कोई तर्क सूझ न रहा था उसे तो गांधी ,बुद्ध भी नही बूझ रहा था
हम दोनो के बीच एक अपाहिज मिल गया जिसे देख भष्ट्राचार भी हिल गया
तिहाड से था आया और अपने को भष्ट्राचार का भाई बतलाया,
बीमार चल रहा था दवाई की मिलावट ने तो और बीमार बनाया,
अब तो भी भष्ट्राचार कतराने लगा,उसे भी अपना अपना
अपाहिज भविष्य नजर आने लगा,,,,,,,,
मैंने अपाहिज से हाथ मिलाया उसे संयम,सदाचार और सत्य का टांनिक पिलाया,
अपाहिज का बुझा चेहरा भी खिल गया,
मुझे भी भष्ट्राचार का सीधा जबाब मिल गया..........
सतीश कुमार चौहान
खुर्सीपार भिलाई
हर दफतर का शिष्टाचार बन बैठा हैं भ्रष्टाचार
कहता हमसे हाथ मिलाओ, कर देंगें तुम्हारा बैडा पार ,
मैं भी इतराया ,अपने आप को कर्मयोगी बतालाया,
पर वो भी कहां था मानने वाला,
उसने पुरे प्रजातंत्र को ही कुछ इस तरह खंगाला
बार्फोस,ताबूत,तेलगी,तहलका,हवाला सब गिना डाला,
बडे गर्व से उसने कहा भष्ट्र नेता जनता न संभाल पाऐगे,
बन जाओ हमारे ओ हरिशचंद तुम्हारे बच्चे भी पल जाऐगें,
नेता, अभिनेता, पुलिस, कानून,हर कोई साथ मेरे नाचता हैं
पंडित कुरान तो मुल्ला रामायण बांचता हैं,
अवसरवाद् के दौर में भष्ट्रचार का ही जूनून हैं
जनतंत्र के शरीर में भष्ट्रचार का ही खून हैं
मेरा तो स्वाभिमान खौल रहा था भष्ट्राचार सर चढ के बोल रहा था,
मुझे कोई तर्क सूझ न रहा था उसे तो गांधी ,बुद्ध भी नही बूझ रहा था
हम दोनो के बीच एक अपाहिज मिल गया जिसे देख भष्ट्राचार भी हिल गया
तिहाड से था आया और अपने को भष्ट्राचार का भाई बतलाया,
बीमार चल रहा था दवाई की मिलावट ने तो और बीमार बनाया,
अब तो भी भष्ट्राचार कतराने लगा,उसे भी अपना अपना
अपाहिज भविष्य नजर आने लगा,,,,,,,,
मैंने अपाहिज से हाथ मिलाया उसे संयम,सदाचार और सत्य का टांनिक पिलाया,
अपाहिज का बुझा चेहरा भी खिल गया,
मुझे भी भष्ट्राचार का सीधा जबाब मिल गया..........
सतीश कुमार चौहान
खुर्सीपार भिलाई
muktkath

मंहगाई
दस पैसे कप चाय तीस पैसे का दोसा से दादाजी का नाश्ता हो जाता था आज ये सच्चाई जितनी सुखद लगती हैं,उतनी ही दुखद लगती हैं कि हमारा पोता बीस रुपये कप चाय पीकर दो सौ रुपये का दोसा खाऐगा, बात साधारण सी इसलिऐ हो जाती हैं क्योकि आज जिस वेतन पर पिताजी सेवानिवृत हो रहे हैं बेटा आज उस वेतन से अपनी सेवा की शुरुवात कर रहा हैं, सन् 1965 में पैट्रोल 95 पैसे लीटर था चालीस सालो में पचास गुना बढ गया तो आश्चर्य नही की 2050 में भी अगर हम इसके विकल्प को न तलाश पाऐ तो 2500 रुपये लीटर आज जैसे ही रो के या गा के खरीदेगे, मंहगाई के नाम पर इस औपचारिक आश्वासन से किसी का पेट नही भरता पर कीमत का बढना एक सामान्य प्रक्रिया जरुर हैं पर ये सिलसिला पिछले कुछ सालो से ज्यादा ही तेज हो गया हैं जहां आमदनी की बढोतरी इस तेजी की तुलना में अपेक्षाकृत कमजोर महसूस कर रही हैं वही से शुरू होती हैं मंहगाई की मार, दरअसल मंहगाई उत्पादक व विक्रेता के लिऐ तो मुनाफा बढाने का काम करती हैं पर क्रेता की जेब कटती जाती हैं
देश में तेजी से बढती मंहगाई पर राजनेताओ की लम्बे समय से खामोशी समझ से परे हैं बस कैमरे के सामने आपस में कोस कर इतिश्री कर ली जा रही हैं पुर्व में प्याज के दाम पर सरकार गिरने की जैसी बैचेनी कहीं भी दिखती नही दरअसल इस देश में भष्ट्राचार और मंहगाई अब प्रजातांत्रिक मुद्रदा ही नही रहा, कहानी कुछ इस तरह हैं कि डीजल के दाम बढे तीन रुपये लीटर, औसतन सौ सवारी लेकर चलने वाली बसे रोज तीन फेरे लगाती हैं एक फेरे में लगते हैं बीस लीटर डीजल, बस मालिको ने भी तीन रुपये सवारी बढाने के नाम पर हडताल, यातायात अस्त व्यस्त, मंत्री जी ने सक्रियता का परिचय देते हुऐ बस मालिको के साथ पांच सितारा बैठक ली बात दो रुपये प्रति सवारी पर सफलतापुर्वक सेंटल कर ली गई, बस मालिको का मंहगाई बढने से प्रतिदिन 1140 रुपये का लाभ बढ गया, उसी एवज में तमाम मंत्री संत्री की कमीशन बढ गई, सिर्फ सवारी के जेब पर पडी मंहगाई की मार जिसे कहा जाता हैं कानून सम्मत लूट.....राजनेताओ की चुप्पी के अलावा आम लोगो की बेफिक्री का ही नतीजाहैं कि आक्रामक रुप से बढती मंहगाई के बावजूद भी केन्द्र सरकार का लोक सभा चुनाव फिर जीत गई । जिस मध्यम वर्ग की दुहाई में छाती पीट पीट कर मंहगाई की पैरवी की जाती हैं दरअसल वही विश्व का सबसे बडा अतिवाद से ग्रसित खरीददार हैं जो अपनी जेब से ज्यादा बाजार को टटोल रहा हैं और इससे पनपते असन्तोष व हीनभावना पर आग में घी डालने का काम कर रहा हैं विज्ञापन जगत जो इस बात में माहिर हैं कि आम आदमी से पैसा कैसे निचोडा जाता हैं चतुर वर्ग इसलिऐ व्यवस्था के साथ मिलकर उसको खोखला करना या फिर अंगूर खट्रटे कह कर उसे कोसते रहना ही उचित समझ रहा हैं , आज जिस दस साल में हम मंहगाई बढने की बात करते हैं उसी अंतराल में आश्चर्यजनक ढंग दस गुना ज्यादा कार की बिक्री बढी जिसके ईधन व लोन रकम में ही इस मध्यमवर्ग की आय का एक बडा हिस्सा खिसक रहा हैं,गौरतलब हैं की लाख कोशिशो, कटौतियो के बाद मध्यमवर्ग आज लोन की कार घर के सामने खडाकर ऐसे फूल के बात करता हैं लम्बी दूरी दोडकर धावक विजयी सांस भरता हैं जबकी न तो कार खडी करने की जगह हैं न चलाने बैठने का सहूर.....।
मंहगाई का हास्यास्पद्र पहलू यह भी हैं कि रतन टाटा के द्वारा भारतीय मघ्यम वर्ग के बजट को ध्यान में रख कर बनाया नैनो का सबसे सस्ता माडल सबसे कम बिका मंहगे माडल की मांग आज भी बनी हुई हैं अर्थात सस्ती क्यों ले, अरहर दाल नब्बे रुपये किलो हुई बाजार में विकल्प के रुप में मटर दाल को पैतीस रुपये किलो लाया गया जिसमे अपेक्षाकृत ज्यादा फैट, प्रोट्रीन, कारर्बोहाईड्रट और मिनरल और विटामिन हैं और बनाने बघारने की कला के साथ ज्यादा स्वाद भी लिया जा सकता था पर गले उतरना तो दूर इसकी पूछ परख भी नही हुई । दरअसल उपयोगिता से ज्यादा सुविधा को महत्व दिया जा रहा और इसी मनोविज्ञान के साथ घातक ढग से लोगो में सघर्ष करने की क्षमता खत्म हो रही हैं परिणामत आत्महत्या की प्रवृति बढी इसीलिऐ इस सच को समझ लेना चाहिये की अमीर बनने के लिऐ खर्च करना जरुरी हैं, खर्च करना सीख गऐ फिर, कमाना तो खुद ही सीख जाऐगे, कटुसत्य है कि बचत करके कोई अमीर नही बना ।दुर्भाग्य से प्रजातंत्र का वोट बैंक इसी बात से बेपरवाह सामाजिक आर्थिक अराजकता फैला रहा हैं जिस सरकारी खजाने से अच्छे सडक, अस्पताल, स्कूल, पानी, कुटीर व पांरम्पारिक व्यवसाय के अलावा अनाज व उर्जा उत्पादन में उपयोग होना चाहिये वह मुफ्तखोरी के चावल बिजली बांटकर वोट बैंक बनाने में खर्च किया जा रहा हैं इस वजह से लोग मेहनत कर अपनी जरुरते जुटाने के बजाय मक्कार बनकर सरकारी सहूलियतो के लिऐ गरीब बना रहना अपेक्षाकृत ज्यादा बेहतर समझ रहे हैं देश के तमाम नीतिर्निधारक समृद्ध राष्ट्र निर्माण के लिऐ अगर अच्छे स्वास्थ, शिक्षा, रोजगार,सडक, पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओ को उचित नही समझते तो फिर अनिश्चित व दगाबाज वर्षा, बीज, और खाद पर जी तोड मेहनत कर भी कुछ उत्पादन की उम्मीद पर जीने वाला कुछ उत्पादन कर भी ले तो न्यूनतम् मूल्य के लिऐ आत्महत्या करने को मजबूर होने के बजाय किसान क्यों न अपनी खेतीहर भूमि को किसी बिल्डर या उद्योगपति को मोटी रकम में बेचकर वह भी जींस टी शर्ट पहन चकाचैंध करते बडे बडे शापिंग माल में पिज्जा बर्गर खाते हुऐ घूमे क्योकी एक छोटी जमीन के टुकडे का मालिक किसान भी लोन की शहरी जिन्दगी से बेहतर हैं, इसलिऐ बढती जनसंख्या के बावजूद लगातार अनाज उत्पादन में कमी आई हैं किसान के प्रति सरकारी बेरुखी के आत्मद्याती परिणाम हैं जय जवान जय किसान के देश में जब जवान सत्ता की सहूलियतो से महज वोट बैंक बनकर निकम्मा हो जाऐगा और किसान बेबस लाचार तो मंहगाई के आगे अराजकता भी मुंह बाऐ खडी हैं सत्ता से ही जुडे लोग वे दलाल किस्म के लोग भी हैं जो आयात निर्यात की कमीशनबाजी और जमाखेरी के खेल से अकेले महाराष्ट्र में पिछले प्याज के नाम पर तीन हजार करोड डकार गऐ थे, सतीश कुमार चौहान भिलाई 098271 13539
दस पैसे कप चाय तीस पैसे का दोसा से दादाजी का नाश्ता हो जाता था आज ये सच्चाई जितनी सुखद लगती हैं,उतनी ही दुखद लगती हैं कि हमारा पोता बीस रुपये कप चाय पीकर दो सौ रुपये का दोसा खाऐगा, बात साधारण सी इसलिऐ हो जाती हैं क्योकि आज जिस वेतन पर पिताजी सेवानिवृत हो रहे हैं बेटा आज उस वेतन से अपनी सेवा की शुरुवात कर रहा हैं, सन् 1965 में पैट्रोल 95 पैसे लीटर था चालीस सालो में पचास गुना बढ गया तो आश्चर्य नही की 2050 में भी अगर हम इसके विकल्प को न तलाश पाऐ तो 2500 रुपये लीटर आज जैसे ही रो के या गा के खरीदेगे, मंहगाई के नाम पर इस औपचारिक आश्वासन से किसी का पेट नही भरता पर कीमत का बढना एक सामान्य प्रक्रिया जरुर हैं पर ये सिलसिला पिछले कुछ सालो से ज्यादा ही तेज हो गया हैं जहां आमदनी की बढोतरी इस तेजी की तुलना में अपेक्षाकृत कमजोर महसूस कर रही हैं वही से शुरू होती हैं मंहगाई की मार, दरअसल मंहगाई उत्पादक व विक्रेता के लिऐ तो मुनाफा बढाने का काम करती हैं पर क्रेता की जेब कटती जाती हैं
देश में तेजी से बढती मंहगाई पर राजनेताओ की लम्बे समय से खामोशी समझ से परे हैं बस कैमरे के सामने आपस में कोस कर इतिश्री कर ली जा रही हैं पुर्व में प्याज के दाम पर सरकार गिरने की जैसी बैचेनी कहीं भी दिखती नही दरअसल इस देश में भष्ट्राचार और मंहगाई अब प्रजातांत्रिक मुद्रदा ही नही रहा, कहानी कुछ इस तरह हैं कि डीजल के दाम बढे तीन रुपये लीटर, औसतन सौ सवारी लेकर चलने वाली बसे रोज तीन फेरे लगाती हैं एक फेरे में लगते हैं बीस लीटर डीजल, बस मालिको ने भी तीन रुपये सवारी बढाने के नाम पर हडताल, यातायात अस्त व्यस्त, मंत्री जी ने सक्रियता का परिचय देते हुऐ बस मालिको के साथ पांच सितारा बैठक ली बात दो रुपये प्रति सवारी पर सफलतापुर्वक सेंटल कर ली गई, बस मालिको का मंहगाई बढने से प्रतिदिन 1140 रुपये का लाभ बढ गया, उसी एवज में तमाम मंत्री संत्री की कमीशन बढ गई, सिर्फ सवारी के जेब पर पडी मंहगाई की मार जिसे कहा जाता हैं कानून सम्मत लूट.....राजनेताओ की चुप्पी के अलावा आम लोगो की बेफिक्री का ही नतीजाहैं कि आक्रामक रुप से बढती मंहगाई के बावजूद भी केन्द्र सरकार का लोक सभा चुनाव फिर जीत गई । जिस मध्यम वर्ग की दुहाई में छाती पीट पीट कर मंहगाई की पैरवी की जाती हैं दरअसल वही विश्व का सबसे बडा अतिवाद से ग्रसित खरीददार हैं जो अपनी जेब से ज्यादा बाजार को टटोल रहा हैं और इससे पनपते असन्तोष व हीनभावना पर आग में घी डालने का काम कर रहा हैं विज्ञापन जगत जो इस बात में माहिर हैं कि आम आदमी से पैसा कैसे निचोडा जाता हैं चतुर वर्ग इसलिऐ व्यवस्था के साथ मिलकर उसको खोखला करना या फिर अंगूर खट्रटे कह कर उसे कोसते रहना ही उचित समझ रहा हैं , आज जिस दस साल में हम मंहगाई बढने की बात करते हैं उसी अंतराल में आश्चर्यजनक ढंग दस गुना ज्यादा कार की बिक्री बढी जिसके ईधन व लोन रकम में ही इस मध्यमवर्ग की आय का एक बडा हिस्सा खिसक रहा हैं,गौरतलब हैं की लाख कोशिशो, कटौतियो के बाद मध्यमवर्ग आज लोन की कार घर के सामने खडाकर ऐसे फूल के बात करता हैं लम्बी दूरी दोडकर धावक विजयी सांस भरता हैं जबकी न तो कार खडी करने की जगह हैं न चलाने बैठने का सहूर.....।
मंहगाई का हास्यास्पद्र पहलू यह भी हैं कि रतन टाटा के द्वारा भारतीय मघ्यम वर्ग के बजट को ध्यान में रख कर बनाया नैनो का सबसे सस्ता माडल सबसे कम बिका मंहगे माडल की मांग आज भी बनी हुई हैं अर्थात सस्ती क्यों ले, अरहर दाल नब्बे रुपये किलो हुई बाजार में विकल्प के रुप में मटर दाल को पैतीस रुपये किलो लाया गया जिसमे अपेक्षाकृत ज्यादा फैट, प्रोट्रीन, कारर्बोहाईड्रट और मिनरल और विटामिन हैं और बनाने बघारने की कला के साथ ज्यादा स्वाद भी लिया जा सकता था पर गले उतरना तो दूर इसकी पूछ परख भी नही हुई । दरअसल उपयोगिता से ज्यादा सुविधा को महत्व दिया जा रहा और इसी मनोविज्ञान के साथ घातक ढग से लोगो में सघर्ष करने की क्षमता खत्म हो रही हैं परिणामत आत्महत्या की प्रवृति बढी इसीलिऐ इस सच को समझ लेना चाहिये की अमीर बनने के लिऐ खर्च करना जरुरी हैं, खर्च करना सीख गऐ फिर, कमाना तो खुद ही सीख जाऐगे, कटुसत्य है कि बचत करके कोई अमीर नही बना ।दुर्भाग्य से प्रजातंत्र का वोट बैंक इसी बात से बेपरवाह सामाजिक आर्थिक अराजकता फैला रहा हैं जिस सरकारी खजाने से अच्छे सडक, अस्पताल, स्कूल, पानी, कुटीर व पांरम्पारिक व्यवसाय के अलावा अनाज व उर्जा उत्पादन में उपयोग होना चाहिये वह मुफ्तखोरी के चावल बिजली बांटकर वोट बैंक बनाने में खर्च किया जा रहा हैं इस वजह से लोग मेहनत कर अपनी जरुरते जुटाने के बजाय मक्कार बनकर सरकारी सहूलियतो के लिऐ गरीब बना रहना अपेक्षाकृत ज्यादा बेहतर समझ रहे हैं देश के तमाम नीतिर्निधारक समृद्ध राष्ट्र निर्माण के लिऐ अगर अच्छे स्वास्थ, शिक्षा, रोजगार,सडक, पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओ को उचित नही समझते तो फिर अनिश्चित व दगाबाज वर्षा, बीज, और खाद पर जी तोड मेहनत कर भी कुछ उत्पादन की उम्मीद पर जीने वाला कुछ उत्पादन कर भी ले तो न्यूनतम् मूल्य के लिऐ आत्महत्या करने को मजबूर होने के बजाय किसान क्यों न अपनी खेतीहर भूमि को किसी बिल्डर या उद्योगपति को मोटी रकम में बेचकर वह भी जींस टी शर्ट पहन चकाचैंध करते बडे बडे शापिंग माल में पिज्जा बर्गर खाते हुऐ घूमे क्योकी एक छोटी जमीन के टुकडे का मालिक किसान भी लोन की शहरी जिन्दगी से बेहतर हैं, इसलिऐ बढती जनसंख्या के बावजूद लगातार अनाज उत्पादन में कमी आई हैं किसान के प्रति सरकारी बेरुखी के आत्मद्याती परिणाम हैं जय जवान जय किसान के देश में जब जवान सत्ता की सहूलियतो से महज वोट बैंक बनकर निकम्मा हो जाऐगा और किसान बेबस लाचार तो मंहगाई के आगे अराजकता भी मुंह बाऐ खडी हैं सत्ता से ही जुडे लोग वे दलाल किस्म के लोग भी हैं जो आयात निर्यात की कमीशनबाजी और जमाखेरी के खेल से अकेले महाराष्ट्र में पिछले प्याज के नाम पर तीन हजार करोड डकार गऐ थे, सतीश कुमार चौहान भिलाई 098271 13539
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